सिविल सर्विसेज़ बोर्ड (Civil Services Board : CSB)
संदर्भ-टी. एस. आर. सुब्रमण्यम और अन्य बनाम भारत संघवाद
(T.S.R. Subramanian & Ors vs Union Of India & Ors on 31 October, 2013)
उच्चतम न्यायालय ने ‘टी. एस. आर. सुब्रमण्यम और अन्य बनाम भारत संघवाद’ में एक महत्वपूर्ण फैसला देते हुए राज्य सरकारों तथा को यह आदेश दिया कि वे एक सिविल सर्विसेज बोर्ड (Civil Services Board : CSB) का गठन करें। ताकि नौकरशाहों के स्थानांतरण (Transfer), पदोन्नति की प्रक्रम (Promotion Process), पदस्थापन (Posting), सजा (punishment), पुरस्कार (reward), जांच व अनुशासनात्मक कार्यवाही (Disciplinary Action) जैसे विषयों का बेहतर ढंग से प्रबंधन किया जा सके। इस प्रकार इससे सरकारी कार्यों में सुशासन, पारदर्शिता और जवाबदेही निश्चित हो सकेगी।
नौकरशाही को राजनीतिक हस्तक्षेप से भिन्न (Separate) करना तथा सियासी नेताओं द्वारा सिविल सेवकों के नियमित स्थानांतरण की व्यवस्था को खत्म करना न्यायालय की इस कार्यवाही का मुख्य उद्देश्य है। इस न्यायपीठ ने संसद को संविधान के अनुच्छेद 309 के तहत सिविल सर्विसिज एक्ट को पारित करने के लिए आदेश दिया जिसमें एक सिविल सर्विसेज़ बोर्ड (Civil Services Board : CSB) के गठन का प्रावधान होगा, जो “राजनीतिक कार्यकारिणी को स्थानांतरण, अनुशासनात्मक कार्यवाही, पदस्थापन आदि विषयों पर सलाह और परामर्श दे सकता है।” न्यायपीठ ने केंद्र, राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया कि वे तीन माह के भीतर ऐसे बोर्ड का गठन करें (यदि इनका गठन पहले से नहीं किया गया है), जब तक सिविल सर्विसेज बोर्ड के गठन के लिए संसद एक उचित कानून नहीं लाती।
सिविल सर्विसेज बोर्ड (Civil Services Board : CSB)
CSB यानी सिविल सर्विसेज बोर्ड में उच्च पदों पर आसीन सेवारत अधिकारी के साथ केंद्रीय स्तर पर कैबिनेट सचिव और राज्य स्तर पर मुख्य सचिव सम्मिलित होंगे (ये अधिकारी अपने सम्बंधित क्षेत्रों के विशेषज्ञ होंगे)। सिविल सर्विसेज बोर्ड सभी सेवा मामलों पर, विशेषकर स्थानांतरण, पदस्थापन और अनुशासनात्मक कार्यवाही आदि मामलों में राज्य सरकार को सलाह और परामर्श देने हेतु एक उचित विकल्प हो सकता है। बोर्ड की राय को राजनीतिक कार्यकारिणी द्वारा अस्वीकृत किया जा सकता है, परन्तु इसके लिए लिखित रूप में कारण बताना आवश्यक है।
सिविल सर्विसेस के अनादर आने वाली मुख्य सेवाए

न्यायालय की टिप्पणियां (Court’s Remarks)
बेंच (Bench) नौकरशाहों के नियमित स्थानांतरण को अनुपयुक्त ठहराते हुए निर्देश दिया कि सिविल सेवकों की एक न्यूनतम व निश्चित, क़ार्यकाल कुशल सेवा प्रदायगी और दक्षता में वृद्धि सुनिश्चित करेगा। अदालत ने केंद्र, राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को 3 माह के भीतर विभिन्न सिविल सेवकों के लिए सेवा का एक न्यूनतम कार्यकाल सुनिश्चित करने के लिए समुचित दिशानिर्देश जारी करने का निर्देश दिया। न्यायालय ने यह निर्देश दिया कि सिविल सेवक केवल लिखित निर्देशों पर ही अनुक्रिया करेंगे। सिविल सेवकों को कुछ असाधारण परिस्थितियों के आलावा सियासी नेताओं के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष निर्देशों से दूर रहना चाहिए।
उन निर्देशों को नागरिकों को प्रदान नहीं किया जा सकता जो मौखिक और वाचिक निर्देश दर्ज (Record) नहीं किए गए हैं। उत्तरदायित्व तय करने, सिविल सेवकों के कामकाज में जवाबदेहिता सुनिश्चित करने और संस्थागत सत्यनिष्ठा को बनाए रखने हेतु आदेशों एवं दिशा-निर्देशों की रिकॉर्डिंग आवश्यक है। मौखिक दिशा-निर्देशों को रिकॉर्ड किए बिना उन पर कार्य करने से पक्षपात और भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा मिलेगा साथ ही इससे RTI एक्ट के तहत नागरिकों को प्रदत्त अधिकारों का हनन हो सकता है। यदि कोई सिविल सेवक मौखिक दिशा-निर्देशों पर (या किसी के कहने पर कार्य करता है), तो वह जोखिम लेता है क्योंकि बाद में वह यह नहीं सिद्ध कर सकता कि उक्त निर्णय वास्तव में उसका नहीं था।
80 सेवानिवृत्त नौकरशाहों ने अदालत में यह वाद प्रस्तुत किया था। इन नौकसशाहों ने सुप्रीम कोर्ट से सरकार को तीन विशिष्ट सिफारिशों को लागू करने के संबंध में आदेश देने का अनुरोध किया था। ये सिफारिशें सिविल सेवा में सुधार लाने के उद्देश्य से कई विशेषज्ञ समितियों द्वारा भी की गई थी— नौकरशाहों की पदोन्नति और स्थानांतरण हेतु केंद्र और राज्यों में एक स्वतंत्र सिविल सर्विस बोर्ड का गठत करना; सिविल सेवकों को सियासी नेताओं द्वारा नियमित या पक्षपातपूर्ण स्थानांतरण से सुरक्षा प्रदान की जा सके (अर्थात पदस्थापन का एक निश्चित कार्यकाल प्रदान करना); और सभी सिविल सेवकों द्वारा अपने वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों और साथ ही राजनीतिक प्राधिकारियों या व्यावसायिक हितों से प्राप्त सभी दिशा-निर्देशों को दर्ज किया जाना। सिविल सेवकों के नियमित स्थानांतरण की समस्या शासन (Governance) से संबंधित सर्वाधिक कष्टप्रद समस्याओं में से एक है। यह सिविल सेवकों को दीर्घ काल तक पद (Post) पर बने रहने से भी रोकता है।
नियमित स्थानांतरण : नकारात्मक प्रभाव
(Regular Transfer : Negative Effects)
नियमित स्थानांतरण शासन को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है, क्योकि इसके कारण सिविल सेवकों को एक स्थान पर दीर्घ समय तक रहने की अनुमति नहीं मिलती, जिससे वे उस पद (Post) या कार्यालय आदि के बारे में पर्याप्त ज्ञान और अनुभव से वंचित हो जाते हैं जिससे कि उनमें उस कार्य-संस्कृति की जिसमें उन्हें कार्य करना होता है, ठीक समझ भी विकसित नही हो पाती है। क्योंकि पारस्परिक विश्वास और समझ के विकास में समय लगता है इसलिए वे प्रशासनिक नेतृत्व के लिए आवश्यक पारस्परिक विश्वास और समझ के निर्माण में भी असमर्थ हो जाते है।
गौरतलब है कि विभिन्न सुधारों को अपनाने एवं उन्हें बनाए रखने हेतु सिविल सेवकों का लम्बे समय तक एक ही पद पर बने रहना आवश्यक होता है। अतः नियमित स्थानांतरण के कारण सिविल सेवक पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है क्योकि वे लंबे समय तक अपने द्वारा किये गए कार्यों के परिणाम नहीं देख पाते हैं। ये परिणाम उनके संतोष तथा उत्साहवर्धन का स्रोत बन सकते हैं। उत्तरदायित्व मे कमी और भ्रष्टाचार का कारण ही नियमित स्थानांतरण और पदस्थापन होता है।
सरकारी नीतियों के सुस्त क्रियान्वयन, अधिकारियों के मध्य उत्तरदायित्व की कमी, कार्यक्रमों के अपर्याप्त देखरेख के चलते सार्वजनिक धन की बर्बादी वस्तुतः अधिकारियों के निश्चित कार्यकाल के अभाव के महत्वपूर्ण कारणों में से एक है।
राज्य सरकारों के अधिकारी (विशेषकर वह जो राज्यों में अखिल भारतीय सेवाओं में कार्यरत हैं), जो आदेश जारी करने वाले मुख्यमंत्रियों या मंत्रियों को प्रभावित करने में सफल रहते हैं (स्थानीय राजनेताओं और अन्य निहित स्वार्थ वाले व्यक्तियों) के इच्छानुसार नियमित स्थानांतरित होते रहने के कारण निराश हो जाते हैं।
समस्या की जटिलता (Complexity of the Problem)
1978-2006 के दौरान आईएएस अधिकारी ऐसे हैं जिनका उनके संबंधित क्षेत्र में कार्यकाल 1 वर्ष से भी कम समय रहा है (कुल IAS अधिकारियों में 48 से 60 प्रतिशत)। जबकि इसके विपरीत, संबंधित क्षेत्र में 3 वर्ष से अधिक समय के कार्यकाल वाले आईएएस अधिकारियों की संख्या उनकी कुल संख्या के 10 प्रतिशत से भी कम थी।
विभिन्न विशेषज्ञ समितियों/आयोगों के दृष्टिकोण
(View Points of Various Expert Committees/Commissions)
(a) संविधान की कार्यप्रणाली की समीक्षा करने लिए राष्ट्रीय आयोग (National commission to review the working of the constitution) — इस आयोग ने सिविल सेवकों के स्थानांतरण एवं पदस्थापन के बारे में विचार प्रकट करते हुए कहा कि “राजनीतिक वरिष्ठों द्वारा अधिकारियों की नियुक्ति, पदोन्नति और स्थानांतरण के संबंध में प्रयुक्त मनमानी एवं संदेहास्पद विधियों से भी इसकी स्वतंत्रता के नैतिक आधार का क्षरण हुआ है।”
(b) द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (2nd Administrative Reforms Commission: ARC)
प्रशासनिक सुधार आयोग (Administrative Reforms Commission: ARC) ने वर्तमान स्थिति का एक विस्तृत विवरण प्रस्तुत करते हुए एक रिपोर्ट सौंपी। इसके रिपोर्ट में यह कहा किया गया है कि सिविल सेवकों का नियमित स्थानांतरण भारत में लोक प्रशासन की एक स्थायी समस्या बनी हुई है। इस रिपोर्ट में इसके नकारात्मक प्रभावों को भी सूचीबद्ध किया गया है। प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट में यह भी वर्णित है कि सिविल सेवकों के नियमित स्थानांतरण की प्रवृत्ति देश में अपनी जड़ें स्थायी कर हो जमा चुकी है। जब चुनाव के बाद एक नई सरकार का गठन होता है, तो राजनीतिक कार्यकारिणी सबसे पहले सिविल सेवकों का स्थानांतरण करती है। ये स्थानांतरण प्राय: जाति या सामुदायिक कारणों या मौद्रिक कारणों के आधार पैर किये जाते हैं। इससे नौकरशाही का मनोबल गिरने का खतरा बढ़ जाता है। इसमें अधिक ध्यान रखने वाली बात यह है कि इस प्रकार की कार्यवाही से नौकरशाही के भीतर जातिगत और साम्प्रदायिक विभाजन मजबूत होते हैं। इसके आलावा कार्मिक नीति से संबंधित विषयों पर, (जिनमें तैनातियां (Postings), पदोन्नतियां (Promotions), स्थानांतरण (Transfer) और तीव्रगामी वृद्धियां (fast-track advancements) सम्मिलित हैं), स्वायत कार्मिक बोर्डों द्वारा प्रबंधित की जानी चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह संघ लोक सेवा आयोग की तरह कार्य करने करे।
(c) सुरिंदर नाथ समिति (Surinder Nath Committee)
यह बोर्ड वर्तमान में कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता वाले केन्द्रीय बोर्ड द्वारा किए जाने वाले कार्य करेगा। सुरिंदर नाथ समिति ने सिफारिश की है कि संसद, संघ सरकार के लिए एक सिविल सर्विसेज बोर्ड के गठन के लिए एक सिविल सर्विसेज एक्ट अधिनियमित क़र सकती है।
(d) पी.सी. होता समिति (P.C. Hota Committee)
इस समिति ने भी वरिष्ठ सिविल सेवकों से मिलकर बनने वाले सिविल सेवा बोर्डों के गठनो की सिफारिश की थी। इसने सिफारिश की कि केंद्र-राज्यों में इन बोर्डों को सांविधिक दर्जा प्रदान करने के लिए सिविल सर्विसेज एक्ट (Civil Services Act) अधिनियमित किया जाए। केंद्र में इसके प्रस्तावित गेट-अप में कहा गया है कि सेंट्रल स्टाफिंग स्कीम (Central Staffing Scheme) में शामिल प्रशासनिक कर्मियों के स्थानांतरण के संबंध में मंत्रिमंडल की नियुक्ति समिति अंतिम प्राधिकरण होगा।
(e) 5वाँ वेतन आयोग
सिविल सेवकों के असमय एवं नियमित स्थानांतरण के मामलों की जांच और विनियमन के लिए 5वें वेतन आयोग ने केंद्र-राज्य सरकारों के स्तर पर अधिक सशक्त सिविल सेवा बोर्डों के गठन की सिफारिश की। नौकरशाही पद के लिए न्यूनतम कार्यकाल 3-5 वर्ष रखने का सुझाव दिया गया (उन मामलों को छोड़कर जहां कार्यात्मकता के आधार पर एक लंबा कार्यकाल उचित न हो)।
केंद्र सरकार द्वारा उठाये गए कदम
(Steps taken by the Central Government)
अखिल भारतीय सेवाओं (AIS) को संचालित करने वाले नियमों में संशोधन किया गया है तथा अखिल भारतीय सेवाओं के कैडरों से जुड़े पदों के लिए कार्यकाल के निर्धारण का प्रावधान किया गया है। केंद्र सरकार ने सिविल सेवकों के कार्यकाल की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कई उपायों की शुरुआत की है। इन नियमों के अनुसार केंद्र सरकार, राज्य सरकार या संबद्ध राज्य सरकारों से परामर्श कर राज्य के लिए निर्दिष्ट सभी या किसी भी कैडर के पदों के कार्यकाल का निर्धारण कर सकती है।
उच्चतम न्यायालय के उक्त निर्णय के विरुद्ध कुछ आलोचनाएं/मुद्दे
(Some criticisms/issues against the said decision of the Supreme Court)
कुछ विद्वानों/आलोचकों का मानना है कि प्रभावी प्रशासन के लिए यह विवेकाधिकार राजनीतिक प्राधिकरण के पास होता चाहिए। उनका मानना है कि इस प्राधिकार का कोई भी उल्लंघन देश के लिए अच्छा नहीं होगा। कार्यकारिणी के उत्तरदायित्वों का प्रभावी ढंग से पालन करने के लिए अधिकारियों के स्थानांतरण और पद स्थापन की शक्ति सरकार में निहित होनी चाहिए।
आलोचक यह तर्क देते हैं कि संसद को कानून बनाने का निर्देश देना वस्तुतः संसद के विधायी अधिकार का हनन है। इस मामले में प्राथमिक विधायी शक्ति सर्वोच्च न्यायालय के पास निहित हैं और एक प्रतिनिधि कानून निर्माता के रूप में इसने संसद को एक नया कानून बनाने का निर्देश दिया है। लेकिन स्पष्ट रूप से, नया क़ानून बनाने के लिए संसद को निर्देश देकर, न्यायालय अपने पास प्राथमिक विधायी शक्ति के होने की पुष्टि कर रहा है और इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं। यह तर्क कि न्यायलय इस शक्ति का उपयोग कभी-कभार ही करता है, न्यायालय द्वारा केवल एक बार इसके उपयोग करने की स्थिति में भी वैध नहीं होगा। कोई भी प्रशासनिक सुधार एक उचित विधायी प्रक्रिया के माध्यम से होना चाहिए। कुछ राज्य इन सुधारों के पक्ष में नहीं हो सकते हैं तथा परामर्श और सहमति की प्रक्रिया अत्यंत धीमी हो सकती है।
उपसंहार (Conclusion)
कई सुधार आयोगों ने भारतीय कार्यकारिणी के कॉर्मिक प्रबंधन में मौजूद कमियों को उजागर किया गया है और आवश्यक परिवर्तनों को लागू करने के उपायों की सलाह दी है। सिविल सेवकों के नियमित स्थानांतरण से प्रशासन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। यह लोगों को कुशल और प्रभावी सेवा प्रदायगी के तरीके को भी प्रभावित करता है। इस मामले में स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि किसी भी आयोग या समिति की रिपोर्ट में अब तक एक न्यूनतम निश्चित कार्यकाल की आवश्यकता के लिए प्रतिवाद नहीं किए गए हैं, जबकि सरकारें हमेशा पीछे हटती रही है। हमारी विधायिकाओं का यह दायित्व है कि वह समझाए कि एक लोकतांत्रिक सरकार को अपने लोगों की सेवा करना चाहिए।












