संविधान का बुनियादी ढांचा (सिद्धांत)
संविधान का बुनियादी ढांचा (सिद्धांत)
- भारतीय संविधान की मूल संरचना (या सिद्धांत), केवल संवैधानिक संशोधनों पर लागू होती है जो यह बताती है कि संसद, भारतीय संविधानके बुनियादी ढांचे को नष्ट या बदल नहीं सकती है।
- संविधान की मूल संरचना (सिद्धांत) के सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय के कई महत्वपूर्ण निर्णय हैं।
- संविधान की आधारभूत संरचना का तात्पर्य संविधान में निहित उन प्रावधानों से है, जो संविधान और भारतीय राजनीतिक और लोकतांत्रिक आदर्शों को प्रस्तुत करता है। संविधान के 24वें संशोधन पर विचार करते समय न्यायालय ने निर्णय दिया कि विधायिका अनु. 368 के तहत संविधान की मूल संरचना को नहीं बदल सकती।
- संविधान, संसद और राज्य विधान मंडलों या विधानसभाओं को उनके संबंधित क्षेत्राधिकार के भीतर कानून बनाने का अधिकार देता है।
- संविधान, संसद और राज्य विधान मंडलों या विधानसभाओं को उनके संबंधित क्षेत्राधिकार के भीतर कानून बनाने का अधिकार देता है। संविधान में संशोधन करने के लिए बिल संसद में ही पेश किया जा सकता है, लेकिन यह शक्ति पूर्ण नहीं है। यदि सुप्रीम कोर्ट को लगता है कि संसद द्वारा बनाया गया कानून संविधान के साथ न्यायसंगत नहीं है तो उसके पास (सुप्रीम कोर्ट) इसे अमान्य घोषित करने की शक्ति है। इस प्रकार, मूल संविधान के आदर्शों और दर्शनों की रक्षा करने के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने बुनियादी संरचना सिद्धांत को निर्धारित किया है।
- सिद्धांत के अनुसार, संसद संविधान के बुनियादी ढांचे में परिवर्तन या उसे नष्ट नहीं कर सकती है।
संविधान की मूल संरचना की पृष्ठभूमि
(Background of Basic Structure of the Constitution)

संविधान की मूल संरचना (Basic Structure of the Constitution)
- केशवानन्द भारती मामले में उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद संविधान की मूल संरचना महत्वपूर्ण हो गया।
- मूल अधिकार और राज्य के नीति निदेशक तत्व के बीच विवाद से शुरू हुए जो संविधान लागू होने के बाद मुद्दे बने।
- समाजवाद आधारित अर्थव्यवस्था पर चलना शुरू किया, स्थिति के अनुसार ये समाजवाद आधारित अर्थव्यवस्था देश के लिए सही थी
- समाजवाद आधारित के प्रावधान नीति निदेशक तत्वों का हिस्सा था, जब उसे लागू करने की कोशिश हुई तो संवैधानिक अंतर्विरोध सामने आने शुरू हुए।
सविधान की मूल संरचना की जड़
समस्याए कहा आई
I
- मूल अधिकार के अनुच्छेद 19 (1)(f) और अनुच्छेद 31 संपत्ति का अधिकार देता था, वहीं DPSP के अनुच्छेद 39 (b और c) संपत्तियों एवं संसाधनों के सामान वितरण पर बल देता था।
- समाज आधारित असमानताओं को खत्म करके सभी को बराबर के स्तर पर लाने की बात करता था।
- जमींदारी प्रथा का दौर था, जमींदारों के पास सैकड़ों-हजारों बीघा जमीने थी, असमानता खत्म करने के लिए जरूरी था की, जमींदारी प्रथा को खत्म कर दिया जाये|
- कुछ ज़मीनों को आम आदमी को दे दिया जाये और उस जमीन पर ऐसे फैक्ट्रीयां, उद्योग-धंधे आदि लगाया जाये ताकि समाज के निचले तबके के लोगों को ऊपर लाया जा सकें।
- राज्य के नीति निदेशक तत्व के अनुच्छेद 39 के अनुसार सही था, क्योंकि वह असमानता खत्म करने की ही तो बात करता है|
- अनुच्छेद 19, अनुच्छेद 31 संपत्ति का अधिकार देता है, अनुच्छेद के अनुसार संपत्ति एक मूल अधिकार था उसको छीना नहीं सकते|
- अनुच्छेद 13 मूल अधिकारों को खत्म होने से रोकता है।
- अनुच्छेद 368 संविधान में संशोधन का अधिकार भी देता है, इस अनुच्छेद के अनुसार आवश्यकता पर संविधान में कहीं भी संशोधन किया जा सकता था|
II
- अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 15 और अनुच्छेद 16 जो कि समानता की बात करता है।
- राज्य के नीति निदेशक तत्व में अनुच्छेद 46 के अनुसार- अनुसूचित जाति, जनजाति, दुर्बल वर्गों को आर्थिक और शैक्षणिक हितों को प्रोत्साहन देने की बात करता है।
- अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 15 और अनुच्छेद 16 समानता की बात करता है और वहीं राज्य का नीति निदेशक तत्व के अनुच्छेद 46 में कुछ विशेष वर्गों के हित के लिए सुविधा या आरक्षण की बात करते करते है।
- उदाहरण- चंपकम दोराइराजन बनाम मद्रास सरकार का मामला, जिसके अनुसार पहली बार सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ये बात हुई की मूल अधिकार सबसे उच्च है|
चंपकम दोराइराजन बनाम मद्रास सरकार का मामला 1951
- मद्रास सरकार के अनुसार कुछ वर्गों को अगर आरक्षण नही दिया तो वो पिछेड़े ही रहे जायेंगे इसी कारण से मद्रास सरकार ने कुछ वर्गों के लिए मेडिकल कॉलेज में सीटों पर आरक्षण की व्यवस्था की।
- चंपकम दोराइराजन एक ब्राह्मण लड़की थी, आरक्षण से सीटें कम होने के कारण एड्मिशन नहीं हो पाया, उसने मद्रास उच्च न्यायालय में मूल अधिकारों के हनन को लेकर एक याचिका दायर की।
चंपकम दोराइराजन का पक्ष
- चंपकम दोराइराजन पक्ष रखते हुए कहा कि अनुच्छेद 15, 16 और 29(2) भेद-भाव नहीं किया जा सकता है।
- अनुच्छेद 29(2) में कहा है राज्य निधि से सहायता प्राप्त किसी संस्था में किसी नागरिक को धर्म, जाति, मूलवंश, और लिंग विभेद नहीं किया जाएगा।
- पक्ष –विपक्ष के आधार पर सीटों का आरक्षण गलत था।
सरकार का पक्ष
- सरकार ने DPSP के अनुच्छेद 46 के तहत कहा- उसके आधार पर सीटों को आरक्षित किया जा सकता है और अनुच्छेद 37 के अनुसार राज्य का कर्तव्य उसको लागू करेगा|
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा – समुदाय के आधार पर आरक्षण मूल अधिकारों का हनन करता है, राज्य एड्मिशन के मामले में जाति, धर्म के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था नहीं कर सकता है, इससे अनुच्छेद 16(2), अनुच्छेद 29(2) का हनन होता है।
- सुप्रीम कोर्ट ने बात कही – मूल अधिकार और नीति निदेशक तत्वों में टकराव होगा तब मूल अधिकार को ही प्रभावी माना जाएगा न कि DPSP को।
- राज्य के नीति निदेशक तत्व लागू नहीं होता, तो लागू करना अनिवार्य नहीं है।
- मूल अधिकार को बचाना सुप्रीम कोर्ट का दायित्व है।
- सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा की मूल अधिकारों को संसद द्वारा संविधान संशोधन प्रक्रिया के माध्यम से संशोधित कर सकते है।
- राज्य का नीति निदेशक तत्व बाध्यकारी नहीं है, लेकिन मूल अधिकार है और सुप्रीम कोर्ट ने मूल अधिकार को ही प्राथमिकता दी।
- प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के अनुसार समाज के वंचित तबके को सामान लाने के लिए संविधान में संशोधन द्वारा कुछ प्रावधानों को हटाना ही पड़ेगा।
- सुप्रीम कोर्ट कहा – समाज के वंचित हमेशा वंचित ही रह जाएँगे, इस लिए 1951 में पंडित नेहरू ने संविधान का पहला संशोधन किया
पहला संविधान संशोधन (First Amendment to the Constitution)
पंडित नेहरू ने 1951 में ही संविधान में पहला संशोधन –
- अनुच्छेद 15 में एक नया कानून 4 जोड़ गया जिसके तहत अनुच्छेद 29(2) में राज्य सामाजिक एवं शैक्षिक दृष्टि से एससी और एसटी वर्ग के उत्थान के लिए कोई विशेष उपबंध बना सकता है।
- दूसरा संशोधन अनुच्छेद 31 में किया, इसमें नया क्लॉज़ अनुच्छेद 31क जोड़ा गया जिसमे जमींदारों और लोक हित में जमीन अधिग्रहण करना आसान हुआ|
- अनुच्छेद 31ख भी जोड़ा गया, जिसके माध्यम से नौवीं अनुसूची बनाई, और डाला गया की कोई प्रावधान मूल अधिकारों का हनन करेगा, तो उसे न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है।
- 1951 का पहला संविधान संशोधन में भूमि सुधार कानून के अंतर्गत जमींदारी प्रथा उन्मूलन, भूमि अधिग्रहण आदि आते हैं।
बुनियादी संरचना के विकास
- “बेसिक स्ट्रक्चर (बुनियादी ढांचा)” शब्द का उल्लेख भारत के संविधान में नहीं किया गया है।
- लोगों के बुनियादी अधिकारों और संविधान के आदर्शों और दर्शन की रक्षा के लिए समय-समय पर न्यायपालिका के हस्तक्षेप के साथ यह अवधारणा धीरे-धीरे विकसित हुयी।
भारत सरकार बनाम शंकरी प्रसाद पहला संविधान संशोधन अधिनियम, 1951
- शंकरी प्रसाद मामले’ (1951) में पहले संशोधन अधिनियम (1951) की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई जिसमें सम्पत्ति के अधिकार में कटौती की गई थी।
- संविधान संशोधन की चुनौती का आधार संविधान के भाग III का उल्लंघन करता है उसे अवैध घोषित किया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा – अनुच्छेद 368 के तहत संसद को मौलिक अधिकारों और संविधान के किसी भी भाग में संशोधन करने का अधिकार है।
- यह निर्णय न्यायालय में सज्जन सिहं बनाम राजस्थान सरकार के मामले में दिया था।
- अनुच्छेद 13 में कहा है की- वह विधि जो मूल अधिकारों को कम करती है वह उतनी खारिज होगी जितनी वह मूल अधिकारों का हनन करती है, अनुच्छेद 368 के आधार पर संशोधन को असंवैधानिक माना जाना चाहिए।
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा- अपने फैसले में शंकरी प्रसाद के आर्ग्युमेंट को खारिज किया, अनुच्छेद 13 और अनुच्छेद 368 दोनों अलग है, दोनों को एक दूसरे से मिला नही सकते|
अनुच्छेद 368 के तहत संसद को मौलिक अधिकारों और संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकते है, अनुच्छेद 13 के तहत संविधान संशोधन का कोई शब्द का नहीं।
- इस मामले में निर्णय भारत सरकार के पक्ष में गया, पहली संविधान संशोधन से जमींदारी उन्मूलन का एक रास्ता खुल चुका था।
- सभी राज्यों ने अपने-अपने राज्य में अपने-अपने हिसाब से भूमि सुधार कानून बनाया और इस प्रक्रिया को जारी रखा।
गोलक नाथ बनाम पंजाब सरकार के मामले 1967 में
- सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी विचार बदले, इस में सत्रहवें संशोधन अधिनियम (1964) की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी|
- 9वीं अनुसूची में राज्य द्वारा की जाने वाली कुछ कार्यवाहियों को जोड़ दिया गया था।
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा- मौलिक अधिकारों को श्रेष्ठ तथा अपरिवर्तनीय स्थान प्राप्त है, संसद मौलिक अधिकारों को कम और किसी अधिकार को नही वापस ले सकती है।
- संवैधानिक संशोधन अधिनियम की अनुच्छेद 13 एक कानून है, यह मौलिक अधिकार का उल्लंघन करने में सक्षम नहीं है।
- गोलकनाथ मामले (1967) में सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था की प्रतिक्रिया में संसद ने 24वाँ संशोधन अधिनियम (1971) अधिनियमित किया।
- 1971 में संसद ने 24वां संविधान संशोधन अधिनियम पारित कर दिया था।
- अधिनियम ने मौलिक अधिकारों सहित संविधान में कोई भी परिवर्तन करने के लिए संसद को पूर्ण शक्ति दे दी थी।
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा- अनुच्छेद 368, संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया की अनुमति देता है संविधान के हिस्से में संशोधन के लिए संसद को पूर्ण शक्तियां नहीं देता है।
- न्यायलय ने कहा- सभी संवैधानिक संशोधन बिलों पर राष्ट्रपति की सहमति जरूरी होगी।
- 1967 में गोलकनाथ मामले में ट्विस्ट आया, गोलकनाथ ने वो ही मुद्दा उठाया जो शंकरी प्रसाद और सज्जन सिंह ने उठा रहे थे गोलकनाथ ने 17वें संविधान को भी गलत ठहराया।
गोलकनाथ जजमेंट का पलटना
- इन्दिरा गांधी ने संविधान में 24वां संविधान संशोधन करके गोलकनाथ मामले को पलट दिया।
- इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 11 जजों की बेंच ने 6:5 के बहुमत से फैसला सुनाया और पहले के सारे फैसलों को पलट दिया।
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा -अनुच्छेद 13, अनुच्छेद 368 से अलग नहीं है संसद अनुच्छेद 368 का उपयोग करके मूल अधिकारों में कटौती नहीं कर सकती है।
- कोर्ट ने कहा कानून इस संबंध में बन चुके है, जिसकी भी जमीन ले ली गई है उसको तो वापस नहीं कर सकते लेकिन यह अब कानून है इसका इस्तेमाल नही होगा|
1973 में, केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार
- केरल के एक मठ के संचालक केशवानन्द भारती के मठ की भूमि का केरल भूमि सुधार (संशोधित) अधिनियम 1969 के तहत अधिग्रहण (Acquisition) कर लिया गया और इस कानून को 29वें संविधान संशोधन 1972 द्वारा 9वीं अनुसूची में डाल दिया गया।
- केशवानन्द भारती ने सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 32 के तहत याचिका डाली और उन्होने अनुच्छेद 25, 26, 14, 19(1)(f) और अनुच्छेद 31 के तहत मिलने वाली मौलिक अधिकारों की रक्षा की मांग की।
- केशवानन्द भारती ने 24वें संविधान संशोधन एवं 25 वें संविधान संशोधन शामिल करके कहा इस संशोधन के माध्यम से हमारे मौलिक अधिकारों का हनन हुआ है, अनुच्छेद 19(1)(f) के तहत हमको संपत्ति का अधिकार।
- 24वां संशोधन तो गोलकनाथ के फैसले को पलटना था, 25वां संविधान संशोधन बैंक राष्ट्रीयकरण से जुड़ा है|
- 24वें संशोधन अधिनियम (1971) के तहत संसद मौलिक अधिकारों को सीमित कर सकती है, , अधिकार को वापस ले सकती है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने – संविधान की मूल संरचना (basic structure) का एक नया सिद्धांत दिया।
- सुप्रीम कोर्ट कहा संसद को संविधान के प्रावधान में संशोधन करने का अधिकार है लेकिन संशोधन के समय संविधान का मूल ढांचा बना रहना चाहिए।
- सुप्रीम कोर्ट ने बुनियादी संरचना में स्पष्ट परिभाषा नहीं दी, “संविधान के मूल ढांचे को संवैधानिक संशोधन से निरस्त नहीं कर सकते है”।
इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण, 1975
- संविधान के मूलभूत ढांचे के सिद्धांत की सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इंदिरा नेहरू गांधी मामले (1975) में पुनः पुष्टि की गई।
- सर्वोच्च न्यायालय ने 39वें संशोधन अधिनियम (1975) के एक प्रावधान रद्द करके प्रधानमंत्री एवं लोकसभा अध्यक्ष से सम्बन्धित चुनावी विवादों को सभी न्यायालयों के क्षेत्राधिकार से बाहर कर दिया था।
- न्यायालय ने कहा यह प्रावधान संसद की संशोधनकारी शक्ति के बाहर है संविधान के मूलभूत ढांचे का हनन करता है।
- पुनः न्यायपालिका द्वारा नव-आविष्कृत मूल संरचना’ के सिद्धांत की प्रतिक्रिया में संसद ने 42वाँ संशोधन अधिनियम पारित कर दिया।
- इस अधिनियम ने अनुच्छेद 368 को संशोधित कर घोषित किया कि संसद की विधायी शक्तियों की कोई सीमा नहीं है|
- संविधान संशोधन को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती- किसी भी आधार पर, चाहे वह मौलिक अधिकारों के उल्लंघन का ही क्यों न हो।
फैसले में न्यायाधीशों द्वारा सूचीबद्ध की गयी संविधान की कुछ बुनियादी विशेषताएं निम्नवत् हैं:
- संविधान की सर्वोच्चता
- सरकार की रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक प्रपत्र
- संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र
- संविधान का संघीय चरित्र
- शक्तिओं का विभाजन
- एकता और भारत की संप्रभुता
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता
सुप्रीम कोर्ट के सामने प्रश्न
- 1. क्या अनुच्छेद 368 के तहत, संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति असीमित है? दूसरे शब्दों में, क्या संसद संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है यहाँ तक सभी मौलिक अधिकारों को छीनने की सीमा तक भी संविधान के किसी भी हिस्से को बदल सकती है?
- 2. क्या 24वां और 25वां संविधान संशोधन वैध है?
● सुप्रीम कोर्ट का फैसला
- सुप्रीम कोर्ट की 13 जजों की बेंच ने (जो अब तक की सबसे बड़ी बेंच है) 24 अप्रैल 1973 को 7:6 के बहुमत से एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा कि –
- 1. 24वां और 25वां संविधान संशोधन पूरी तरह से सही है।
- हालांकि 25वें संविधान संशोधन के माध्यम से जो अनुच्छेद 31ग में संशोधन किया गया था उसके दूसरे भाग (जिसमें ये बताया गया था कि उसके तहत बनाए गए नीति को न्यायालय में चैलेंज नहीं किया जा सकता है) को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया। इसके तहत न्यायालय ने कहा कि – न्यायिक समीक्षा संविधान की मूल विशेषता है और इसीलिए इसे छीना नहीं जा सकता है।
- 2. संसद, संविधान के किसी भी हिस्से को संशोधित कर सकती है चाहे वो मूल अधिकार ही क्यों न हो। लेकिन संसद को ये हमेशा याद रखना होगा कि संविधान संशोधन की शक्ति, संविधान को फिर से लिखने की शक्ति नहीं है।
- तब सुप्रीम कोर्ट ने ‘संविधान की मूल संरचना (Basic Structure of the Constitution)’ व्यवस्था को सबके सामने रखा।
- इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ-साफ कहा कि संसद अनुच्छेद 368 की मदद से संविधान में हर प्रकार का संशोधन कर सकता है पर संसद संविधान के मूल ढांचे में कोई परिवर्तन नहीं कर सकता।
- क्या मूल ढांचा होगा और क्या नहीं, इसे सुप्रीम कोर्ट समय-समय पर बताता रहेगा।
- इस तरह से संविधान की मूल संरचना अस्तित्व में आया। इसने सुप्रीम कोर्ट को बेशुमार शक्तियाँ दी। अब हर कानून बनाने से पहले संसद को एक बार ये सोचना पड़ता है कि कहीं संविधान के मूल संरचना को ठेस तो नहीं पहुंचा है।
- अगर आपने विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया और विधि की सम्यक प्रक्रिया को समझ रखी है तो आप समझ रहे होंगे कि, विधि की सम्यक प्रक्रिया के अंतर्गत जो शक्तियाँ सुप्रीम कोर्ट को मिलती वहीं शक्तियाँ या कुछ मामलों में उससे भी ज्यादा शक्तियाँ ‘संविधान की मूल संरचना‘ के अंतर्गत ‘क़ानूनों की समीक्षा‘ करने की शक्ति से प्राप्त हो गयी है।
- जनता को इससे फायदा ये है कि सुप्रीम कोर्ट की ये शक्ति सरकार को कभी भी तानाशाह नहीं बनने देंगी, परिणामस्वरूप लोकतंत्र और जनता का हित हमेशा सुरक्षित रहेगा।
मिनर्वा मिल (1980)
- उच्चतम न्यायलय ने “मिनर्वा मिल्स” बनाम “भारत संध” विवाद में यह निर्धारित किया कि अनु. 368 का खंड (4) विधिसम्मत नहीं (invalid) है|
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा अनुच्छेद 368 का खंड (4) विधिसम्मत नहीं (invalid) है बल्कि न्यायिक पुनर्विलोकन को समाप्त करने के लिए पारित किया गया था।
- न्यायिक पुनर्विलोकन को समाप्त करने के लिए पारित किया गया था, न्यायिक पुनर्विलोकन का सिद्धांत संविधान का आधारभूत लक्षण है
- 42 वे संविधान अधिनियम संशोधन 1976 हुआ इस संशोधन को संविधान का मिनी संविधान भी कहा जाता है।
- 42वें संशोधन के उक्त प्रावधान को असंवैधानिक बताते हुए निर्णय दिया गया कि संसद् संविधान के मौलिक ढांचें को नहीं बदल सकता|
- इन संशोधन में तीन नए शब्द जोड़े गए समाजवादी , धर्मनिरपेक्ष और अखंडता , संविधान के भाग 4 में 51क जोड़ा गया|
- नागरिकों के कर्तव्य, राष्ट्रपति केबिनेट की सलाह, प्रशासनिक अधिकरणों की व्यवस्था की गई|
- सर्वोच्च न्यायालय ने मिनर्वा मिल मामले’ (1980) में इस प्रावधान को अमान्य कर दिया इसमें न्यायिक समीक्षा के लिए कोई स्थान नहीं था, जो कि संविधान की ‘मूल विशेषता’ है।
- अनुच्छेद 368 से सम्बन्धित ‘मूल संरचना’ के सिद्धांत को इस मामले पर लागू करते हुए न्यायालय ने व्यवस्था की|

“वामन राव बनाम भारत संघ (1981)”
- वामन राव मामले (1981) में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘मूल संरचना’ के सिद्धांत पर स्पष्ट किया की 24 अप्रैल, 1973 (अर्थात्, केशवानंद भारती मामले में फैसले के दिन) के बाद अधिनियमित संविधान संशोधनों पर लागू होगा।
- यह विवाद में न्यायलय ने स्पष्ट किया की आधारभूत लक्षण का सिद्धांत संविधान संशोधन अधिनियमों द्वारा लागू होगा|
- संविधान ने संसद को सीमित संशोधनकारी शक्ति है, शक्ति का उपयोग करके संसद निरंकुश सीमा तक नहीं बढ़ा सकती।
- सीमित संसद को संशोधनकारी शक्ति संविधान की मूल विशेषता है|
- अतः इस शक्ति की सीमाबद्धता को नष्ट नहीं किया जा सकता।
- सीमित शक्ति का उपभोगकर्ता शक्ति का उपयोग करके सीमित शक्ति को असीमित शक्ति में नहीं बदल सकता।”
- संसद अनुच्छेद 368 के अधीन संविधान के किसी भी भाग, मौलिक अधिकारों में संशोधन कर सकती है, लेकिन ‘मुल संरचना’ प्रभावित न हो।
- सर्वोच्च न्यायालय स्पष्ट किया ये देखना होगा की ‘मूल संरचना’ के घटक कौन-से हैं। ‘
मूल संरचना’ के तत्व या घटक
1. संविधान की सर्वोच्चता
2. भारतीय राजनीति की सार्वभौम, लोकतांत्रिक तथा गणराज्यात्मक प्रकृति
3. संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र
4. विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के बीच शक्ति का विभाजन
5. संविधान का संघीय स्वरूप
6. राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता
7. कल्याणकारी राज्य (सामाजिक-आर्थिक न्याय)
8. न्यायिक समीक्षा
9. वैयक्तिक स्वतंत्रता एवं गरिमा
10. संसदीय प्रणाली
11. कानून का शासन
12. मौलिक अधिकारों तथा नीति-निदेशक सिद्धांतों के बीच सौहार्द और संतुलन
13. समत्व का सिद्धांत
14. स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव
15. न्यायपालिका की स्वतंत्रता
16. संविधान संशोधन की संसद की सीमित शक्ति
17. न्याय तक प्रभावकारी पहुँच
18. मौलिक अधिकारों के आधारभूत सिद्धांत (या सारतत्व)
19. अनुच्छेद 32, 136, 141 तथा 142° के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय को प्राप्त शक्तियाँ।
20. अनुच्छेद 226 तथा 227 के अंतर्गत उच्च न्यायालयों की शक्ति
संविधान की मूल संरचना लिस्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कैसे-कैसे और किन-किन मामलों के तहत मूल संरचनाओं को स्थापित किया है।
केशवानन्द भारती मामला 1973 |
1. संविधान की सर्वोच्चता 2. विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के बीच शक्तियों का बंटवारा 3. सरकार का लोकतांत्रिक एवं गणतांत्रिक स्वरूप 4. संविधान का संघीय एवं संसदीय चरित्र 5. भारत की संप्रभुता एवं एकता 6. व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं गरिमा |
इन्दिरा गांधी बनाम राजनारायन मामला 1975 |
1. स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव 2. व्यक्ति की प्रस्थिति एवं अवसर की समानता 3. न्यायिक समीक्षा |
मिनर्वा मिल्स मामला 1980 |
1. संसद की संविधान संशोधन करने की सीमित शक्ति 2. मौलिक अधिकारों एवं नीति निर्देशक सिद्धांतों के बीच सौहार्द एवं संतुलन 3. न्यायिक समीक्षा (यहाँ भी कहा गया) |
सेंट्रल कोलफील्ड लिमिटेड मामला 1980 |
1. न्याय तक प्रभावी पहुँच |
भीमसिंह जी मामला 1981 |
1. कल्याणकारी राज्य (सामाजिक-आर्थिक न्याय) |
एस. पी संपथ कुमार मामला 1987 |
1. कानून का शासन |
दिल्ली ज्यूडीशियल सर्विस एसोसिएशन मामला 1991 |
अनुच्छेद 32, 136, 141 तथा 142 के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति |
इंद्रा साहनी मामला 1992 |
1. कानून का शासन |
कुमार पद्म प्रसाद मामला 1992 |
1. न्यायपालिका की स्वतंत्रता |
रघुनाथ राव मामला 1993 |
1. भारत की एकता एवं अखंडता 2. समानता का सिद्धान्त |
एस. आर. बोम्मई मामला 1994 |
1. संघवाद 2. धर्मनिरपेक्षता 3. लोकतंत्र 4. सामाजिक न्याय 5. राष्ट्र की एकता एवं अखंडता |
चन्द्रकुमार मामला 1997 |
1. उच्च न्यायालयों की अनुच्छेद 226 एवं 227 के अंतर्गत शक्तियाँ |
इंद्रा साहनी 2 मामला 2000 |
1. समानता का सिद्धांत |
ऑल इंडिया जजेस एसोसिएशन मामला 2002 |
1. स्वतंत्र न्यायिक प्रणाली |
राम जेठमलानी मामला 2011 |
अनुच्छेद 32 के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियाँ |









