भारत में महिला आरक्षण का मुद्दा और इसके विभिन्न आयाम
भारत में महिला आरक्षण का मुद्दा और इसके विभिन्न आयाम
भारत दुनिया के उन देशों में शामिल है जहां संसद और विधान सभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व न के बराबर है । आम तौर पर हर समाज में महिलाओं की संख्या आबादी का आधा होती है । भले ही पिछले सालों में भारत में यह अनुपात गिरता गया हो, अभी भी उनकी संख्या 45 प्रतिशत से हर हाल में ज्यादा है । वहीं भारतीय संसद में महिलाओं का हिस्सा सिर्फ 11.4 प्रतिशत है । इससे यह तो साफ है कि भारत में महिलाओं के उत्थान और उन्हें विकास की मुख्य धारा में शामिल करने के लिए उन्हें प्रोत्साहन देने की सख्त जरूरत है और आरक्षण उसी प्रोत्साहन का एक तरीका है ।
लेकिन भारत में महिलाओं को आरक्षण देने पर आम सहमति बन नहीं रही है । देश की कई पार्टियां इसके खिलाफ हैं ।
भारत में महिला नेताओं की कमी नहीं है । बस इतना है कि वे राजनीति से दूर हैं क्योंकि राजनीतिक माहौल महिलाओं के लिए अनुकूल नहीं माना जाता ।
राजनीतिक प्रतिनिधित्व की आवश्यकता क्यों
चुनावी राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की मांग के पीछे सिर्फ यही सोच नहीं है कि उनकी मौजूदगी बढ़े बल्कि यह भी है कि राजनीतिक विमर्श में उनकी भागीदारी हो जिसमें अवसरवादिता, लैंगिक भेदभाव और अति-पुरुषवादी विमर्श हावी न हो।
महिला राजनीतिक सशक्तिकरण तीन मूलभूत बातों पर आधारित है:
- महिलाओं और पुरुषों के बीच समानता;
- महिलाओं को उनकी क्षमता के पूर्ण विकास का अधिकार;
- महिलाओं के आत्म प्रतिनिधित्व और आत्मनिर्णय का अधिकार;
भारत में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी के समक्ष अड़चने
- महिलाओं को राजनीतिक रूप से सशक्त बनाने में उनकी निरक्षरता मुख्य बाधाओं में से एक है।
- ज्ञान और समझ की कमी के कारण, वे अपने मूल राजनीतिक अधिकारों के बारे में नहीं जानते हैं। शिक्षा के मामले में लैंगिक असमानता, संसाधनों के स्वामित्व में निरंतर पक्षपाती रवैया अभी भी महिला नेताओं के लिए बाधाओं के रूप में कार्य करता है। शिक्षा महिलाओं की सामाजिक गतिशीलता को प्रभावित करती है। शैक्षणिक संस्थानों में प्रदान की जाने वाली औपचारिक शिक्षा ने नेतृत्व के अवसर पैदा किए है और नेतृत्व को आवश्यक कौशल प्रदान किया है।
- पुरुषों और महिलाओं के बीच घरेलू काम का असमान वितरण भी इस संबंध में महत्वपूर्ण कारकों में से एक है।
- राजनीतिक निर्णय लेने और अलोकतांत्रिक आंतरिक प्रक्रियाओं में खुलेपन की कमी सभी नवागंतुकों के लिए एक चुनौती है, लेकिन विशेष रूप से महिलाओं के लिए क्योंकि उनमें अंदरूनी ज्ञान या राजनीतिक नेटवर्क की कमी होती है।
- भारत की आंतरिक राजनीतिक दल संरचना में उनके कम अनुपात के कारण, महिलाएं अपने राजनीतिक निर्वाचन क्षेत्रों के पोषण के लिए संसाधन और समर्थन इकट्ठा करने में विफल रहती हैं।
- महिलाओं को चुनाव लड़ने के लिए राजनीतिक दलों से पर्याप्त वित्तीय सहायता नहीं मिलती है।
- महिलाओं पर थोपे गए सामाजिक और सांस्कृतिक मानदंड उन्हें राजनीति में प्रवेश करने से रोकते हैं। उन्हें अपने ऊपर थोपे गए हुक्मों को स्वीकार करना होता है और समाज का बोझ उठाना होता है।
- सार्वजनिक दृष्टिकोण न केवल यह निर्धारित करता है कि आम चुनाव में कितनी महिला उम्मीदवार होंगी बल्कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से यह भी की कितनी महिलाओं को नामांकित किया जाना है। कुल मिलाकर राजनीतिक दलों का माहौल भी महिलाओं के अनुकूल नहीं है, उन्हें पार्टी में जगह बनाने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता है और बहुआयामी मुद्दों का सामना करना पड़ता है।
आंकड़े क्या कहते हैं
- वर्ष 2019 में 17वीं लोकसभा के लिए हुए चुनावों में जीतने वाली महिलाओं की संख्या अब तक की सबसे अधिक संख्या 78 रही जो कि कुल सांसदों का मात्र 14.58 प्रतिशत है। इसकी तुलना में 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में 11.23 प्रतिशत महिलाएं जीती थीं। 2014 में 8,251 प्रत्याशियों में से 668 महिलाएं थीं जिनमें से 62 चुनाव जीतीं थीं। जबकि 2019 के चुनावों में 8,049 प्रत्याशियों में से 716 महिलाएं थीं। इनमें से 46 महिलाएं पहली बार लोकसभा का चुनाव जीतने में सफल रहीं।
- गत् लोकसभा चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा ने कुल 53 महिला प्रत्याशी मैदान में उतारी थीं, जिनमें से 34 जीत दर्ज कर लोकसभा में पहुंची हैं। इसकी तुलना में, ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस ने 41 प्रतिशत और बीजू जनता दल ने 33 प्रतिशत महिलाओं को चुनाव मैदान में उतारा था।
- देश की सर्वोच्च पंचायत संसद में देश के भविष्य पर चिंतन करने तथा उसे संवारने की व्यवस्था करने के लिए पहली बार लोकसभा में महिलाओं का हिस्सा 14.58 प्रतिशत तक बढ़ना खुशी की बात तो है मगर सन्तोषनक बात नहीं है, क्योंकि पिछले एक दशक से भी अधिक समय से देश की इस आधा आबादी के लिए कम से कम एक तिहाई सीटों के आरक्षण पर चर्चा चल रही है।
महिला आरक्षण की त्रासदी: वैश्विक परिप्रेक्ष्य
- अन्तर संसदीय संघ (इंटर पार्लियामेंटरी यूनियन) के अनुसार विश्वभर की संसदों में सिर्फ 17.5 प्रतिशत महिलाएं हैं। ग्यारह देशों की संसदों में तो एक भी महिला नहीं है और 60 देशों में दस प्रतिशत से कम प्रतिनिधित्व है। अमरीका और यूरोप में बीस प्रतिशत प्रतिनिधित्व है, जबकि अफ्रीका एवं एशियाई देशों में 16 से 10 प्रतिशत। अरब देशों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सिर्फ़ 9.6 प्रतिशत है।
- महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के मामले में 183 देशों में रवांडा पहले नम्बर पर है। वहां संसद में 48.8 फीसदी महिलाएं हैं। संसद में महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के मामले में भारत दुनिया में 134वें स्थान पर है।
संसद और विधानसभाओ में महिला आरक्षण क्यों
- जब संविधान का 73 वा और 74 वा संशोधन कर के महिलाओ को पंचायतो और नगर पालिकाओ में एक तिहाई आरक्षण दे दिया जा चूका हैं तो उसका विस्तार संसद और विधानसभा स्तर पर क्यूँ नहीं हो सकता हैं
- प्रतिनिधित्व से लडकियों के समक्ष एक नया रोल मोडल पेश हो सकेगा और इसका सकारात्मक असर महिला सशक्तिकरण के रूप में पड़ेगा
- महिलाओ की आधी आबादी के नाते निति निर्धारण में उनकी समुचित भूमिका अति आवश्यक हैं, मतलब महिलाओ के लिए आधी सीटें आरक्षित हो
- महिलाओ की संख्या संसद या विधानसभाओ में नगण्य हैं क्यूँ की कोई भी दल महिलाओ को टिकट देना नहीं चाहता हैं
- पुरुष के प्रभाव के चलते राजनितिक दल चुनाव में अधिक महिला उम्मीदवार को खड़ा करना नहीं चाहते हैं, अतः आरक्षण से सभी दलो द्वारा महिला उम्मीदवारों के चुनाव के समर्थन करना सुनिश्चित हो सकेगा
- महिलाओ में निरक्षरता दर पुरुषो की तुलना में काफी अधिक हैं, अतः संसद और विधानसभाओ में आरक्षण देकर उनकी चेतना का शीघ्र विकास किया जा सकता हैं
भारतीय राजनीति में महिला आरक्षण की शुरुआत
- महिलाओं को राजनीति में समुचित हिस्सेदारी देने और देश के विकास में उनके योगदान को सुनिश्चित करने की पहल 1993 में संसद द्वारा 73वें एवं 74वें संविधान संशोधन से हो गई थी। भले ही यह सपना राजीव गांधी का था और उन्होंने ही पंचायतीराज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा देकर उन्हें सशक्त करने एवं महिलाओं की 33 प्रतिशत भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए नवीन पंचायतीराज का विधेयक तैयार कराया था, जिसे 1993 में नरसिम्हाराव के कार्यकाल में संसद ने संविधान में भाग 9 जोड़कर अनुच्छेद 243 डी में महिला आरक्षण की व्यवस्था की थी।
- आज देश की इन पंचायतीराज संस्थाओं में 13.45 लाख महिला प्रतिनिधि (कुल निर्वाचित प्रतिनिधियों में 46.14 प्रतिशत) लोकतंत्र की बुनियादी इकाई में सक्रिय रहते हुए क्षेत्रीय विकास में योगदान दे रही है। लेकिन उसके बाद जब विधानसभा और लोकसभा में भी एक तिहाई महिला आरक्षण की बात आई तो राजनीतिक दलों की करनी और कथनी का अंतर आड़े आ गया।
महिला सशक्तिकरण में किस हद तक लाभ मिला
- यूनाइटेड नेशंस यूनिवर्सिटी वर्ल्ड इंस्टीट्यूट फॉर डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स रिसर्च के एक अध्ययन के मुताबिक:
- भारत में महिला विधायकों ने अपने निर्वाचन क्षेत्रों में आर्थिक प्रदर्शन में पुरुष विधायकों की तुलना में प्रति वर्ष लगभग 1.8 प्रतिशत अंक की वृद्धि की;
- अब्दुल लतीफ जमील पॉवर्टी एक्शन लैब (J-PAL) के एक अध्ययन के अनुसार, महिला प्रतिनिधि पुरुषों की तुलना में पानी की आपूर्ति और सड़क संपर्क जैसे मुद्दों के बारे में अधिक चिंतित थीं।
- तमिलनाडु में किए गए एक अन्य सर्वेक्षण से संकेत मिलता है कि लगभग 30% महिलाओं ने कहा कि रोटेशन की व्यवस्था समाप्त होने के बाद, वे उसी सीट से चुनाव लड़ेंगी। अन्य 15% ने कहा कि अगर उन्हें मौका दिया गया तो वे मुख्यधारा की राजनीति में प्रवेश करेंगे।
महिला आरक्षण बिल
- पहली बार इस विधेयक को देवगौड़ा के नेतृत्व वाली लोकसभा में 1996 में पेश किया गया था तब भी सत्तारूढ़ पक्ष में एक राय नहीं बन सकी थी।
- महिला आरक्षण के लिए संविधान संशोधन 108वां विधेयक 2008 में मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में पेश हुआ था जो कि 9 मार्च को विधेयक 2010 में राज्यसभा में पारित हुआ मगर लोकसभा में पारित नहीं हो पाया। उसके बाद 2014 में लोकसभा भंग हो गई।
- चूंकि राज्यसभा स्थायी सदन है, इसलिए यह बिल अभी जिंदा माना जा सकता है। अब लोकसभा इसे पारित कर दे, तो राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद यह कानून बन जाएगा।
- इसके अंतर्गत लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटों पर आरक्षण का प्रावधान रखा गया है। इसी 33 फीसदी में से एक तिहाई सीटें अनुसूचित जाति और जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षित की जानी है।
विधेयक के खिलाफ तर्क:
- यह तर्क दिया जाता है कि यह महिलाओं के लिए एक असमान स्थिति का प्रचार करेगा। यह योग्यता के आधार पर प्रतिस्पर्धा के सिद्धांत के प्रतिकूल होगा ।
- यह नीति राजनीति के अपराधीकरण और आंतरिक-दलीय लोकतंत्र जैसी बड़ी चुनावी सुधारों की जरूरतों से ध्यान हटा सकती है।
- संसद में महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण महिला उम्मीदवारों के लिए मतदाताओं की पसंद को प्रतिबंधित करता है, जिन्हें लोग पसंद कर सकते हैं या नहीं भी कर सकते हैं।
- चुनाव के दौरान आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों के रोटेशन से सांसद को अपने निर्वाचन क्षेत्र के विकास के लिए प्रोत्साहन कम हो सकता है क्योंकि वह उस निर्वाचन क्षेत्र से फिर से चुनाव लेने के लिए अपात्र हो सकता है।
- यह चुनाव के लोकतांत्रिक सिद्धांत को कमजोर करता है।
- संविधान पर संयुक्त समिति (८१वां संशोधन) विधेयक, 1996 ने ओबीसी समुदाय की महिलाओं को आरक्षण सुनिश्चित करने के लिए संविधान में संशोधन के बाद अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) की महिलाओं को आरक्षण देने की सिफारिश की थी। इसने आरक्षण को राज्यसभा और विधान परिषदों तक विस्तारित करने का भी आह्वान किया। हालांकि, इन सिफारिशों को बिल में शामिल नहीं किया गया था।
- राजनीतिक दल अपनी महिला उम्मीदवारों को उन निर्वाचन क्षेत्रों में नियुक्त कर सकते हैं जहां उनका प्रतिनिधित्व सीमित है।
- यदि किसी निर्वाचन क्षेत्र में अधिक पुरुष उम्मीदवार है तो महिला उम्मीदवार को नाराजगी हो सकती है।
- जो लोग इस बिल के खिलाफ हैं उनका तर्क है कि महिलाओं के लिए एक निर्वाचन क्षेत्र आरक्षित करने का मतलब उन पुरुषों के लिए अवसर का नुकसान होगा जो बेहतर या अधिक योग्य उम्मीदवार हो सकते थे
- यह तर्क दिया जाता है कि, एक प्रतिनिधि लोकतंत्र में, जहां 543 में से 131 सीटें पहले से ही एससी और एसटी के लिए आरक्षित हैं, एक अतिरिक्त 33 % कोटा लोगों की इच्छा की अवहेलना कर जबरन प्रतिनिधित्व देना कहा जाएगा।
- महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व का कारण विभिन्न दलों में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी तथा पुरुषवादी मानसिकता को बताया गया है।
- इस विधेयक का विरोध करने वालों का कहना है कि दलित और ओ बी सी महिलाओं के लिये अलग से कोटा होना चाहिये। उनके अनुसार सवर्ण, दलित और ओ बी सी महिलाओं की सामाजिक परिस्थितियों में अंतर होता है और इस वर्ग की महिलाओं का शोषण अधिक होता है। उनका यह भी कहना है कि महिला विधेयक के रोटेशन के प्रावधानों में विसंगतियाँ हैं जिन्हें दूर करना चाहिये।
- इसी के साथ-साथ एक तर्क यह भी है कि इस विधेयक से केवल शहरी महिलाओं का प्रतिनिधित्व ही संसद में बढ़ पाएगा। इसके बावजूद यह एक दिलचस्प तथ्य है कि किसी भी दल से महिला उम्मीदवारों को चुनाव में उस अनुपात में नहीं उतारा जाता, जिससे उनका प्रतिनिधित्व बेहतर हो सके।
समाधान
- इस समस्या के समाधान के लिए दो विकल्प हो सकते हैं जिनका उपयोग किया जा सकता है। वो हैं:
- राजनीतिक दलों के भीतर महिला उम्मीदवारों को आरक्षण प्रदान करना। उदाहरण: स्वीडन, नॉर्वे, अर्जेंटीना, आदि।
- कम से कम एक महिला द्वारा अपना प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए दोहरे सदस्य निर्वाचन क्षेत्र।
- महिलाओं के पर्याप्त प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिये विभिन्न उपाय अपनाए जा सकते हैं। उदाहरण के लिये, स्वीडन जैसे कुछ यूरोपीय देशों में हर तीन उम्मीदवारों में एक महिला शामिल होती है।
- सॉफ्ट कोटा सिस्टम भी लागू किया जा सकता है जो इस तर्क पर आधारित है कि लैंगिक समानता धीरे-धीरे समय के साथ नियमों की आवश्यकता के बिना होगी। और इसका उपयोग अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया तथा न्यूज़ीलैंड जैसे लोकतंत्रों में किया जाता है।
निष्कर्ष
अगर महिलाएं जीतकर राजनीतिक सत्ता भी हासिल कर लेती हैं तो भी यह जरूरी नहीं है कि राजनीति में उनकी उल्लेखनीय भागीदारी सुनिश्चित हो जाए। यह बात उन पार्टियों को देखकर पता चलता है जिनकी अध्यक्ष महिलाएं ही हैं। हालांकि, अध्ययनों में यह बात आई है कि स्थानीय स्तर पर महिलाओं की बढ़ी भागीदारी की वजह से स्थानीय स्तर पर राजनीतिक एजेंडे और गतिविधियों में सुधार आया है।
यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि निर्वाचित होने के बाद क्या महिलाएं अलग ढंग से सोचती हैं और क्या व्यापक बदलाव लाने के लिए अलग ढंग से काम करती हैं? आरक्षण से सदनों में उनकी भागीदारी तो बढ़ सकती है लेकिन महिलाओं को राजनीति में सत्ता समीकरणों को बदलने के लिए काम करना चाहिए।
महिला मतदाताओं की संख्या लगातार बढ़ रही है। ऐसे प्रतिनिधियों की जरूरत है जो अपनी मांगों को सही ढंग से उठा सकें और एक नई राजनीतिक संस्कृति के विकास में अपनी भूमिका निभा सकें। इन प्रतिनिधियों को कार्यबल में महिलाओं की घटती भागीदारी और मतदाता सूची में दो करोड़ महिलाओं के नहीं शामिल होने के मुद्दों को उठाना चाहिए। उन्हें महिलाओं के मुद्दों को विस्तार देने की कोशिश करनी चाहिए।
वास्तविक प्रतिनिधित्व का मतलब यह है कि अलग-अलग पृष्ठभूमि वाली महिलाओं को आवाज मिले और इससे राजनीति में नई संवेदना विकसित हो। यह जरूरी है कि लोकतंत्र और नारीवाद के मूल्यों में विश्वास पैदा किया जाए न कि आक्रामक पुरुषवाद और हिंसक सोच का समर्थन किया जाए।
S No | Year | Number of women MPs | Percentage of Women MPs |
1 | 1951 | 22 | 4.50% |
2 | 1957 | 22 | 4.45% |
3 | 1962 | 31 | 6.28% |
4 | 1967 | 29 | 5.58% |
5 | 1971 | 28 | 5.41% |
6 | 1977 | 19 | 3.51% |
7 | 1980 | 28 | 5.29% |
8 | 1984 | 43 | 7.95% |
9 | 1989 | 29 | 5.48% |
10 | 1991 | 39 | 7.30% |
11 | 1996 | 40 | 7.37% |
12 | 1998 | 43 | 7.92% |
13 | 1999 | 49 | 9.02% |
14 | 2004 | 45 | 8.29% |
15 | 2009 | 59 | 10.87% |
16 | 2014 | 66 | 12.15% |
Table ‘A’- Percentage of women MPs in the Lok Sabha over the years.
Election years | Percentage of male MPs in Lok Sabha | Percentage of women MPs in Lok Sabha |
Phase I (1952-1977) | 95% | 5% |
Phase II (1977-2002) | 93% | 7% |
Phase III (2002 onwards) | 90% | 10% |
Table ‘B’- India’s rank over the years.
Year | India’s rank |
January 1998 | 95 |
February 2008 | 144 |
January 2021 | 148 |
Table ‘C’- Low Percentage of Women candidates in Lok Sabha elections
Election years | Percentage of male candidates in Lok Sabha elections | Percentage of female candidates in Lok Sabha elections |
Phase I (1952-1977) | 97% | 3% |
Phase II (1977-2002) | 96% | 4% |
Phase III (2002 onwards) | 93% | 7% |
(Source: Data from ECI and The Verdict by Prannoy Roy and Dorab Sopariwala.)
Table ‘D’- Low Percentage of Women candidates in assembly elections
Election years | Percentage of male candidates in Vidhan Sabha elections | Percentage of female candidates in Vidhan Sabha elections |
Phase I (1952-1977) | 98% | 2% |
Phase II (1977-2002) | 96% | 4% |
Phase III (2002-2019) | 92% | 8% |
(Source: Data from ECI and The Verdict by Prannoy Roy and Dorab Sopariwala.)
Table ‘E’-Winning strike-rate of men and women in Lok Sabha elections
Election years | Percentage of men | Percentage of women |
Phase I (1952-1977) | 25% | 46% |
Phase II (1977-2002) | 8% | 14% |
Phase III (2002 onwards) | 7% | 10% |
(Source: Data from ECI and The Verdict by Prannoy Roy and Dorab Sopariwala.)
Table ‘F’-Winning strike-rate of men and women in Vidhan Sabha/state assembly elections
Election years | Percentage of men | Percentage of women |
Phase I (1952-1977) | 21% | 34% |
Phase II (1977-2002) | 11% | 14% |
Phase III (2002-2019) | 9% | 10% |
(Source: Data from ECI and The Verdict by Prannoy Roy and Dorab Sopariwala.)