मोदी युग मे भारत की विदेश नीति
प्रधान मंत्री मोदी के काल में भारत की विदेश नीति
अंतरराष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्र इकाई होते हैं और राष्ट्र प्रमुख अपने देश के प्रतिनिधि। ऐसे में देश का प्रतिनिधित्व करने वाले नेता का व्यक्तित्व राष्ट्र व्यक्तित्व का निर्धारण करता है। मोदी के नेतृत्व वाला भारत आज दुनिया को नए तरीके से सोचने पर मजबूर कर रहा है। नेता की निर्णय-शक्ति राष्ट्र के प्रति वैश्विक सोच को बदलकर रख देती है। इसका उदाहरण भारत का विश्व के देशों से मौजूदा संबंधों में नजर आ रहा है। भारत में विदेश नीति और कूटनीति की एक लंबी परंपरा रही है।
मोदी की विदेश नीति की पहल ने दुनिया को सबसे बड़े लोकतंत्र की वास्तविक क्षमता और भूमिका से अवगत कराया है। प्रधानमंत्री मोदी ने सार्क देशों के सभी प्रमुखों की उपस्थिति में अपना पहला कार्यकाल शुरू किया और दूसरे की शुरुआत में बिम्सटेक नेताओं को आमंत्रित किया। संयुक्त राष्ट्र महासभा में उनके संबोधन की दुनिया भर में सराहना हुई। पीएम मोदी 17 साल की लंबी अवधि के बाद नेपाल, 28 साल के बाद ऑस्ट्रेलिया, 31 साल के बाद फिजी और 34 साल के बाद सेशेल्स और यूएई के द्विपक्षीय दौरे पर जाने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने। पदभार संभालने के बाद से मोदी ने संयुक्त राष्ट्र संघ, ब्रिक्स, सार्क और जी -20 समिट में भाग लिया, जहाँ विभिन्न वैश्विक आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर भारत के विचारों को व्यापक रूप से सराहा गया। अब हम प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के दोनों कार्य काल के दौरान भारत की विदेश नीति की चर्चा करें।
प्रधानमंत्री मोदी के पहले कार्यकाल के दौरान भारतीय विदेश नीति (2014 – 2018)
जब मई 2014 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की बागडोर संभाली तब उनकी विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य भारत की बेहतर छवि बनाने और भारत को विश्वपटल पर एक उभरती हुई शक्ति के रूप में दिखाने का था जिसके तहत उन्होंने विभिन्न राष्ट्रों की सरकारों के सामने “मेक इन इंडिया” का प्रस्ताव रखा। इसी प्रस्ताव के चलते FDI के नियमों में भी बदलाव किये गए। प्रवासी भारतियों के साथ संबंधों को भी नयी विदेश नीति के तहत ही बढ़ाया गया ।
“पड़ोस पहले” की नीति
अपने पहले कार्यकाल में नेबरहुड पॉलिसी को लेकर प्रतिबद्ध रही मौजूदा सरकार अपने दूसरे कार्यकाल में भी विदेश नीति को लेकर काफी सक्रिय है। बीते दिनों शपथ ग्रहण समारोह में एक बार फिर नेबरहुड पॉलिसी पर ज़ोर देते हुए बिम्सटेक देशों को आमंत्रित किया गया था। इसके अलावा नई सरकार बनने के तुरंत बाद ही प्रधान मंत्री मोदी ने मालदीव और श्रीलंका का भी दौरा किया है। “पड़ोसपहले ” की नीति को तरज़ीह देते हुए भारतीय विदेश मंत्री भी बीते दिनों भूटान दौरे पर थे जहां उन्होंने दोनों देशों के बीच आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के मुद्दे पर बातचीत की है।
आदर्शवाद एवं यथार्थवाद का मेल
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश नीति पूरी दुनिया के समक्ष अबूझ पहेली है। अब भारत ने अपनी विदेश नीति में यथार्थवादी एवं आदर्शवाद के भेद को मिटाकर व्यवहार में दोनों को एक सिक्का के दो पहलू के रूप में स्थापित कर दिया है। इसीलिए अभी भारतीय विदेश नीति बदली हुई नजर आ रही है। उस पर मोदी की नीति का प्रभाव नजर आ रहा है।
मोदी अपनी विदेश नीति में विश्व समुदाय से गरीबी, जलवायु परिवर्तन, विश्व व्यापार में कमजोर देशों के पक्षों की रक्षा आदि की बात मजबूती से रखते हैं तो वहीं यथार्थवादी पक्ष के रूप में दुनिया के सबसे बड़ी समस्या आतंकवाद पर सभी वैश्विक मंच से स्पष्ट राय रखते हुए दुनिया के देशों को अपने विचारों से सहमत करा लेते हैं। यथार्थवाद कहता है राष्ट्र को शक्तिशाली होना चाहिए तभी उसके हितों की रक्षा संभव है। वर्तमान भारत सरकार राष्ट्र को तीव्रता से सैनिक एवं आर्थिक रूप से अनेक महत्वपूर्ण कदम उठाकर तीव्रतम सुधर का कार्य कर रही है
विकसित विदेश नीति का सिद्धांत
पड़ोस पहले की नीति पर काम करते हुए सार्क देशों को शपथ ग्रहण समारोह में बुलाना नरेंद्र मोदी का पहला मास्टर स्ट्रोक था। प्रधान मंत्री मोदी के नेतृत्व में सरकार ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान विकसित विदेश नीति’ के सिद्धांतों पर काम किया है जिससे भारतीय कूटनीति काफी मज़बूत हुई है। पुरानी सरकारों द्वारा वैश्विक स्तर पर हल किए मुद्दों को मौजूदा सरकार ने प्राथमिकता देते हुए आगे बढ़ाया है। इन कामों में बांग्लादेश के साथ हुआ भूमि सीमा समझौता और अमेरिका के साथ हुए असैन्य परमाणु समझौते जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे शामिल थे। इसके अलावा यूरोपीय देशों और भारत के संबंधों को प्रभावित करने वाले ‘इतालवी मरीन मामले’ मामले पर भी मौजूदा सरकार ने ज़ोर दिया। इतालवी मरीन मामले के चलते यूरोप, भारत को मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण व्यवस्था MTCR में शामिल होने से रोक रहा था।
मोदी के पहले कार्यकाल के दौरान जहाँ अफ़ग़ानिस्तान और श्रीलंका जैसे देशों के साथ भारत के सम्बन्ध बेहतर हुए तो वहीं नेपाल और पाकिस्तान जैसे भारत के पड़ोसी मुल्कों के साथ भारत के सम्बन्ध में तल्ख़ी आई है। पाकिस्तान मामले में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद, पुलवामा हमला और कुलभूषण जाधव जैसे मामले शामिल रहे हैं। नेपाल मामले में देखे तो नेपाल के नए संविधान ने काठमांडू और नई दिल्ली के बीच दरार पैदा कर दी, और मधेसी नाकाबंदी के कारण ये दरार और भी चौड़ी हो गई है। जानकारों के मुताबिक नेपाल अब भारत से दूर जाकर चीन के साथ अपने संबंधों को बढ़ा रहा है। प्रधान मंत्री मोदी ने मॉरीशस और सेशेल्स के द्वीप देशों की यात्रा की जिससे हिंद महासागर क्षेत्र में एक मजबूत नींव बना पड़ी है।
एक्ट ईस्ट पॉलिसी और पड़ोसी देशों से संबंधों को नया आयाम
90 के दशक में आई लुक ईस्ट पॉलिसी को बढ़ावा देते हुए मोदी ने एक्ट ईस्ट का नारा दिया जिससे दक्षिण-पूर्व एशिया में भारत की पकड़ पहले से मजूत हुई है। एक्ट ईस्ट दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ व्यापार और निवेश संबंधों को बढ़ाने में भारत की उत्सुकता को दर्शाती है। इसके मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं —
#भारत की एक्ट ईस्ट पॉलिसी एशिया-प्रशांत क्षेत्र में मौजूद देशों के भी सहभागिता को बढ़ावा देने के मकसद से लाई गई थी।
#भारत और एशिया-प्रशांत क्षेत्र के बीच क्षेत्रीय, द्विपक्षीय और बहुपक्षीय समझौतों के माध्यम से आर्थिक सहयोग, सांस्कृतिक संबंधों और सामरिक संबंध विकसित करना।
#भारत के उत्तर-पूर्वी भारतीय राज्यों और इसके पड़ोसी राज्यों के बीच मधुर सम्बन्ध विकसित करना।
#भारत के पारंपरिक व्यापार भागीदारों के स्थान पर उभरते हुए दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के अलावा प्रशांत क्षेत्र के देशों के साथ व्यापार संबंधों को ज्यादा वरीयता देना।
भारत-अमेरिका संबंध
भारत और अमेरिका के बीच संबंध प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में समृद्ध हुए हैं। भारत-अमेरिका ‘टू प्लस टू’ वार्ता से संबंध बेहतर हुए हैं। वर्ष 2015 में बराक ओबामा की दूसरी भारत यात्रा ने भारत और अमेरिका के रिश्ते को नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया क्योंकि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिका के साथ मिलकर दुनिया से आतंकवाद को खत्म करने और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के निर्माण के लिए कई समझौते किये। साथ ही जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद, गरीबी, कुपोषण, मानवाधिकार जैसे अंतरराष्ट्रीय मुद्दो पर साथ रहकर काम करने की इच्छा जतायी। इससे दोनों देश कई मुद्दों पर पास आये। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प की सरकार बनने के बाद से ट्रम्प सरकार भारत के साथ विदेश नीतियों को बेहतर करने में जुटी हुई है। भारत-अमेरिका रणनीतिक साझेदारी के मामले में सफल रहा है। दोनों देशों ने रक्षा सहयोग, आधारभूत लौजिस्टिकल समझौतों और भारत-प्रशांत क्षेत्र में सहयोग सहित कई मुद्दों पर प्रगति देखने को मिली है। हालांकि वैश्विक व्यापार माहौल में आयी गर्माहट भारत और अमेरिका के व्यापार संबंधों को भी प्रभावित कर सकती है ।
चीन पर लगाम
दक्षिण पूर्व एशिया में चीन स्वयं को सर्वशक्तिमान मानता रहा है। वह 1962 में भारत की हार को आधार बनाकर हमेशा अपनी हेकड़ी दिखाता रहा है। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी द्वारा निर्देशित सशक्त विदेश नीति के आगे उसकी हेकड़ी भी जाती रही है। डोकलाम विवाद में जब उसे 200 मीटर जाना पड़ा तो यह प्रधानमंत्री मोदी की विदेश नीति की नई ऊंचाई प्रदान कर गया। पूरी दुनिया ने चीन की हरकत की निंदा की और उसकी हेकड़ी गुम हो गई। प्रधानमंत्री मोदी ने बिना एक शब्द कहे ही डोकलाम विवाद पर चीन को मात दे दी। साथ ही सभी एशियाई देशों पर दबदबा बनाने के ख्याल से चलाई गई चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) योजना से भी भारत ने खुदको अलग रखा है ।
भारत-रूस संबंध
रूस भारत के सबसे पुराने मित्रों में से एक है । डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा रूस पर नए सिरे से प्रतिबन्ध लगाने के फैसले के बाद भारत -रूस के संबंधों को लेकर कई तरह के कयास लगाए जा रहे थे । मगर प्रधानमंत्री मोदी द्वारा रूस के राष्ट्रपति के साथ अनौपचारिक वार्ता के बाद इन कयासों पर रोक लगी । साथ ही रूस और चीन के साथ ओसका में हुई जी 20 बैठक में आतंकवाद का मुकाबला करने और जलवायु परिवर्तन को लेकर भी मुलाकात की थी। हालांकि जानकारों का कहना है कि रूस के साथ संबंध कुछ हद तक खराब हुए हैं क्योंकि भू-राजनीतिक गतिशीलता में बदलाव के कारण भारत अमेरिका संबंध घनिष्ठ हुए हैं और इसके चलते रूस विशेष रूप से रक्षा मामलों में, चीन और पाकिस्तान के साथ आगे बढ़ा है।
भारत-जापान संबंध
2014 में सरकार बनाने के बाद से ही नरेंद्र मोदी और शिंजो आबे ने जापान और भारत के संबंधों को सुधरने की कोशिश की जिसमें वे काफी हद तक कामयाब भी हुए है । दोनों ही देशों के विचार सामरिक सुरक्षा, ऊर्जा सहयोग, क्षेत्रीय सहयोग और एकीकरण जैसे रणनीतिक मुद्दों को लेकर काफी सकारात्मक रहे है । प्रधान मंत्री मोदी और शिजो आबे दोनों के ही पास भारत- जापान रिश्तों को और बेहतर करने का यह अच्छा मौका है । इसके अलावा, भारत, जापान, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के बीच क्वाड प्रारूप के तहत होने वाली बैठकों को संस्थागत रूप दियागया।
साउथ एशिया के साथ संबंध
साउथ एशिया भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण क्षेत्र है जिसमे भारत अपनी सहभागिता दर्ज करना चाहेगा हालांकि सार्क समूह में पाकिस्तान के नकारात्मक रवैये के चलते नयी सरकार ने बिम्सटेक देशों और साउथ ईस्ट एशियाई देशों पर ध्यान केंद्रित कर रही है। आशियान देशों के साथ सम्बन्ध बनाने के लिए बिम्सटेक बेहतर ज़रिया है। प्रधानमंत्री द्वारा शपथ ग्रहण समारोह में बिम्सटेक देशों के नेताओं के साथ किर्गिज़ गणराज्य और मॉरीशस को आमंत्रित करके एक कूटनीतिक संदेश दिया है। इस कूटनीतिक संदेश का मतलब है, बंगाल की खाड़ी से लेकर मध्य एशिया के पड़ोसी देशों और प्रवासी भारतीय समूह तक भारत की पहुँच को बढ़ावा देना था। हालाँकि पड़ोसी मुल्क़ पाकिस्तान के साथ भारत के सम्बन्ध जस – के तस बने हुए हैं। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के चलते भारत के समबन्ध पाकिस्तान से ख़राब हुए है। आर्थिक तंगी से जूझ रहे पाकिस्तान से भारत ने अब मोस्ट फवोर्ड नेशन का भी दर्ज़ा वापस ले लिया है।
अरब देशों से भी भारत के प्रगाढ़ हुए संबंध
भारतीय प्रधानमंत्री ने अपने पहले कार्य काल में मिडिल ईस्ट के प्रमुख देशों जिनमे सऊदी अरब , संयुक्त अरब अमीरात, क़तर और इसराइल शामिल है, से अच्छे सम्बन्ध स्थापित किये है। इन संबंधों से प्रधानमंत्री मोदी अपने इस सत्र में विदेश निवेश को बढ़ावा दे सकते है । हालांकि ईरान पर अमरीका द्वारा लगाए तेल प्रतिबन्ध के कारण भारत को दिक्कतों का सामना करना पड़ा और अमेरिका के साथ अपने संबंधों को लेकर भी परेशानी उठानी पड़ी । कहा जा रहा था कि प्रधानमंत्री मोदी के इजरायल दौरे से फिलीस्तीन के साथ संबंधों पर असर पड़ सकता है। लेकिन फिलीस्तीन के मामले पर मोदी सरकार की नीति अटल है जिसका असर है कि अरब देशों से भारत के संबंध और भी प्रगाढ़ हुए हैं। इतना ही नहीं इजरायल ने भी ऐसे संबंधों को दुनिया की आवश्यकता करार देते हुए भारत के पक्ष को मजबूती दी है।
अफ़्रीकी देशों के साथ बेहतर सम्बन्ध के द्वारा चीन को प्रतिसंतुलित करने का प्रयास
अफ्रीकी महाद्वीप में व्यापार ,समुद्री सुरक्षा खतरे ,जलवायु परिवर्तन,आतंकवाद विरोधी प्रयास ,अफ्रीका में हाइड्रोकार्बन की उपस्थिति तथा चीन का अफ्रीका में बढ़ता प्रभाव जैसे मुद्दों को लेकर भारत सरकार अफ्रीका में अपनी विदेश नीति को बेहतर करने के प्रयास कर रही है । इसके तहत भारत सरकार ने साल 2018 – 19 में 5 अफ्रीकी देशों में दूतावास का निर्माण किया है । साथ ही अपनी विदेश नीति को और बेहतर करने के लिए भारत अफ्रीका में साल 2019-20 में 18 नए राजनयिक अभियानों को शुरू करने जा रही है जिसके तहत चार नए अफ्रीकी देशों में भारतीय दूतावास का निर्माण किया जाएगा ।
लैटिन अमेरिका के देशों में रूचि
मोदी सरकार ने इस लैटिन अमेरिका के देशों के साथ संपर्क बढ़ाने में दिलचस्पी दिशाई है। भारतीय विदेश नीति की प्राथमिकता में यह क्षेत्र पहले कभी नहीं रहा, लेकिन मोदी के नेतृत्व में भी लैटिन अमेरिकी देशों के साथ भी रिश्ते दिन-ब-दिन बेहतर हो रहे हैं। माना जा रहा है कि मोदी अपने दूसरे कार्यकाल में लैटिन अमेरिका के लिए अलग से विदेश नीति के विजन पर काम कर सकते हैं। इस क्षेत्र में भारत की राजनयिक पहुंच बढ़ाने के लिए सरकार खर्च़ भी बढ़ा सकती है।
मोदी का दूसरा कार्यकाल (कोविड काल) में विदेश नीति की दिशा (2019-21)
भारतीय विदेश नीति का एजेंडा और एक्शन 2020 में आए तीन मुख्य संकटों द्वारा तय हो गया था-कोविड-19 के मद्देनजर स्वास्थ्य संकट, सुरक्षा संकट और आर्थिक संकट। इनमें से अधिकांश के 2021 में भी जारी रहने की संभावना है। भारतीय राजनयिक ने कोविड-19 संकट को एक अवसर के रूप में उपयोग करते हुए सार्क को फिर से सक्रिय कर एक नई जमीन तोड़ी है। भारत ने 150 देशों को दवाएं और चिकित्सा उपकरणों की आपूर्ति की है, जबकि विश्व के अन्य देशों में फंसे एक मिलियन से ज्यादा अप्रवासी भारतीयों को अपने घर लाने का काम किया है।
प्रधानमंत्री मोदी ने सार्क देशों के प्रमुखों के साथ वर्चुअल शिखर सम्मेलन में भाग लिया तत्पश्चात उन्होंने जी -20 देशों के प्रमुखों के साथ भी वर्चुअल शिखर सम्मेलन करने का प्रस्ताव रखा। इन दोनों ही शिखर सम्मेलनों के माध्यम से प्रधानमंत्री मोदी ने कोविड -19 की महामारी से निपटने के लिये विभिन्न क्षेत्रीय एवं बहुपक्षीय मंचों का उपयोग किया जबकि एक समय पर ये सभी मंच नेतृत्वविहीन लग रहे थे।
इन कूटनीतिक अनुबंधों के अतिरिक्त, भारत ने ‘विश्व का दवाखाना’ की अपनी छवि के अनुरूप भूमिका निभाने का भी सतत प्रयत्न जारी रखा है। इसके लिये भारत ने मलेरिया निरोधक दवा हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन का निर्यात पूरी दुनिया को किया है। विकसित देशों के साथ-साथ भारत ने अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कई देशों को इस अतिशय मांग वाली दवा का निर्यात किया है।
सीएए के बाद भारत का आउटरीच पर काफी प्रभाव पड़ा है। उन्होंने कश्मीर में सामन्य स्थिति बनाने के लिए डेमोक्रेट द्वारा कांग्रेस में पेश में किए गए प्रस्ताव पर नाराजगी जताई। प्रधान मंत्री मोदी का बयान, अबकी बार ट्रंप सरकार, डेमोक्रेट के साथ अच्छा साबित नहीं हुआ। हालांकि, बाइडेन ने अतीत में भारत के लिए समर्थन दिखाया और भारत में बढ़ते NRI मुद्दे पर सूझबूझ दिखाई। बाइडेन अमेरिका के राष्ट्रपति बनने के बाद गैरनिवासी भारतीयों और भारत से संबंधित अन्य मुद्दों से संबंधित नीतियों में सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं।
बीजिंग के पक्ष में झुकाव होने के कारण आरसीईपी से भारत ने खुद को अलग कर लिया। इस कारण ऑस्ट्रेलिया के साथ भारत का संबंध उच्च स्तर पर हैं। भारत और ऑस्ट्रेलिया द्विपक्षीय वार्ता में संलग्न होने की वजह से मुक्त व्यापार समझौता की ओर धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे हैं।
क्वाड, जिसने पिछले महीने नौसेना अभ्यास किया था, भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच सुरक्षा संबंधों को भी देख रहा है, लेकिन यह सहयोग अमेरिका-चीन संबंधों की स्थिति पर अत्यधिक डिपेंड करता है। विशेषज्ञों का कहना है कि भारत को अपनी पूर्व की नीति के मद्देनजर पश्चिमी शक्तियों के साथ अपने संबंधों में संतुलन बनाए रखने की चुनौती का सामना करना पड़ सकता है।
नेपाल ने कालापानी, लिम्पियाधुरा और लिपुलेख क्षेत्र को अपने क्षेत्र में दिखा कर एक नया मैप जारी कर दिया। क्षेत्र अभी भी विवादित बना हुआ है और तब से दोनों सरकारें ठोस निर्णयों के साथ एक स्थिर सकारात्मक मार्ग सुनिश्चित करने में विफल रही हैं। नेपाल के काठमांडू के साथ कालापानी और अन्य सीमा क्षेत्रों, जो भारतीय क्षेत्र हैं उन पर अपना दावा कर सकता है। जहां तक विदेश नीति का संबंध है, नेपाल के विदेश मंत्रालय ने देश के नए मानचित्र के प्रकाशन को 2020 की प्रमुख झलकियों में से एक बताया।
बांग्लादेश ने कई मौकों पर अप्रवासियों और शरणार्थियों को उनके देश वापस लेने से इनकार कर दिया है, जिससे दोनों देशों की सरकारों के बीच संबंधों खराब हो गए। नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) और प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) के कारण भारत की पड़ोस नीति को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। साथ में अफगानिस्तान और बांग्लादेश के साथ भारत के संबंधों पर इसका विशेष रूप से नकारात्मक प्रभाव पड़ा है।
कोरोना काल में अपने पहले विदेश दौरे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीते दिनों बांग्लादेश गए। इस यात्रा के माध्यम से उन्होंने दर्शाया कि भारत के लिए उसके पड़ोसी कितने अहम हैं। इससे पहले भी अपने प्रथम शपथ ग्रहण समारोह में मोदी ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ सहित दक्षेस के सभी नेताओं को आमंत्रित किया था। इतना ही नहीं अपने पहले विदेश दौर के लिए उन्होंने भूटान को चुना तो दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद वह पहली विदेश यात्रा पर मालदीव गए।
हमारे पड़ोस में इन दिनों म्यांमार बहुत अशांत है। भारत ने स्पष्ट रूप से कहा है कि म्यांमार में नागरिकों की आकांक्षाओं का ख्याल रखा जाए। साथ ही भारत म्यांमार में स्थिरता कायम रखने और वहां के आंतरिक मामलों में दख़ल न देने का पक्षधर भी है। यह दोहरी रणनीति भारत के व्यापक हितों के अनुरूप ही है क्योंकि भारत उससे सीमा रेखा साझा करता है, जो खासी संवेदनशील भी है। विशेषकर भारत के पूर्वोत्तर में अलगाववाद की चुनौती से निपटने में म्यांमार की सेना ने हमेशा भारत का सहयोग किया है। भारत ने भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के बावजूद म्यांमार के राजनीतिक नेतृत्व के अलावा सैन्य नेतृत्व के साथ भी अपने संवाद की धाराएं खुली रखीं।
मोदी काल में भारत की विदेश नीति पूर्वर्ती काल से अलग कैसे
- पिछले पांच सालों में मोदी ने वैश्विक व्यवस्था में भारत की भूमिका को बदलने की कोशिश की है।
- उन्होंने ऐसे संकेत दिए हैं कि भारत अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की प्राथमिकताओं को परिभाषित करने की इच्छा और योग्यता रखता है।
- भारत दुनिया में अपने लिए जो भूमिका चाहता है, उसे लेकर मोदी ने हिचक ख़त्म कर दी है।
- वह अपनी सभ्यता की ‘सॉफ्ट पावर’ की दावेदारी के लिए तैयार है।
- मोदी की इस पहल के बाद राजनयिक स्तर पर भारत का वैश्विक रसूख़ बढ़ाने की कोशिशें तेज़ हुईं।
- इसके साथ योग और अध्यात्म जैसी सॉफ्ट पावर और प्रवासी भारतीयों पर भी जोर दिया गया।
- यह बदलाव भारत के बढ़ते आत्मविश्वास का ही प्रतीक नहीं है बल्कि इसके पीछे अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए नियम तय करने की भूमिका हासिल करने की महत्वाकांक्षा भी है।
- वह खुद को दूसरे देशों के बनाए नियम पर चलने वाले राष्ट्र के रूप में सीमित नहीं रखना चाहता। पहले भारत विदेश नीति को लेकर किसी भी तरह के जोखिम से बचता आया था, लेकिन अब वह अपनी नई भूमिका हासिल करने के लिए रिस्क उठाने को भी तैयार है।
- दशकों से हम एक सतर्क विदेश नीति पर चलते आए थे, लेकिन ‘ग्रेट पावर गेम’ में भारत तेज़ी से कदम बढ़ाने और बड़ी भूमिका पाने के लिए तैयार है।
- मोदी की वर्तमान विदेश नीति की सबसे खास विशेषता यह है कि इसमें पूर्व की सभी नीतियों की अपेक्षा जोखिम लेने की प्रवृत्ति सबसे अधिक है जो एक्ट ईस्ट पालिसी में साफ़ दिखाई देती है।
- मोदी कल में दशकों पुरानी सुरक्षात्मक नीति को बदलते हुए कुछ हद तक आक्रामक नीति को अपनाया है जिसका स्पष्ट उदाहरण है डोकलाम में भारत की कार्रवाई और वर्ष 2016 में उरी आतंकी हमलों के बाद पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक।
- इस प्रकार मोदी के नेतृत्व में विदेश नीति में विचारों और कार्रवाई की स्पष्टता दिखाई देती है।
- वैश्विक राजनीतिक परिवेश को ध्यान में रखते हुए मोदी काल में भारत अपने आर्थिक और राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिये किसी भी औपचारिक समूह पर अपनी निर्भरता को सीमित कर रहा है।
विदेश निति के अंतर्गत मोदीत्व फैक्टर (कुछ खास उपलब्धियां)
आतंकवाद पर पूरी दुनिया भारत के साथ
प्रधानमंत्री मोदी जहां भी जाते हैं वहां के मंच से आतंकवाद का मुद्दा अवश्य उठाते हैं। इसका दूरगामी असर यह हुआ है कि आतंकवाद के मसले पर पूरी दुनिया भारत के रुख से सहमत है और आतंकवाद के हर स्वरूप की निंदा करने को बाध्य है। दरअसल आतंकवाद को अब तक कई देश अपने हिसाब से अच्छे और बुरे आतंकवाद के नजरिये से देखा करते थे, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने आतंकवाद को केवल मानवता के दुश्मन के तौर पर स्थापित कर दिया है और दुनिया इसक मसले पर भारत के साथ खड़ी है।
पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन पर भारत की सराहना
प्रधानमंत्री मोदी जब भी विदेश दौरे पर होते हैं तो पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन पर जरूर चिंता करते हैं। वे भारत की सनातन संस्कृति में प्रकृति पूजा को दुनिया के लिए बेहतरीन विचार मानते हैं और इसे अपनाने की अपील करते हैं। पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन को लेकर हुए पेरिस डील का नेतृत्व करने के लिए भारत को सबसे सही विकल्प माना जा रहा है। इस मसले पर यूरोपियन यूनियन ने भारत से नेतृत्व करने की अपील भी कर दी है।
पाकिस्तान को अलग-थलग करने में मिली सफलता
पूरी दुनिया में पाकिस्तान को अलग-थलग करने में भारत ने जो कामयाबी प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में पाई है वह पहले कभी नहीं हुआ था। आज चीन को छोड़कर पाकिस्तान के पक्ष में बोलने वाला कोई नहीं है। कई मसलों पर तो चीन भी पाकिस्तान के विरोध में खड़ा है। आतंकी हाफिज सईद के साथ दिखने पर फिलीस्तीन द्वारा अपने राजदूत को पाकिस्तान से वापस बुलाने का वाकया हो या फिर ब्रिक्स सम्मेलन में आतंकवाद पर प्रस्ताव पारित करने को मजबूर हुआ चीन हो, या फिर इंडोनेशिया के राष्ट्राध्यक्ष द्वारा पाकिस्तान द्वारा दबाव देने के बावजूद कश्मीर मसले पर कुछ नहीं बोलना प्रधानमंत्री मोदी की विदेश नीति की सफलता की एक और कड़ी है।
दुश्मन-दुश्मन भी भारत का दोस्त
अमेरिका और रूस के बीच तनातनी के बीच दोनों ही देशों से भारत की दोस्ती है। ईरान-सऊदी अरब के बीच तनाव के बावजूद दोनों से भारत के बेहतर संबंधहैं। इजरायल-फिलीस्तीन में दुश्मनी के बाद भी दोनों ही देशों से अच्छी समझ है। यमन और सऊदी अरब को एक साथ साध लेना भी कोई आसान काम नहीं था। लेकिन पीएम मोदी की दूरदर्शी विदेश नीति ने इन दुश्वारियों के बावजूद भारत की अहमियत को बनाए रखा है और दिनों दिन भारत और इन ‘दुश्मन’ देशों के बीच संबंधों को नयी रोशनी में देखा जा रहा है। आलम यह है कि अरब देशों ने बीते साढ़े तीन सालों में चार अरब डॉलर का भारत में निवेश किया है जो आने वाले समय में 25 अरब डॉलर हो जाने की संभावना है। इसी का नतीजा है कि भारत में अब तक 403 अरब डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भी हो चुका है।
2021 में भारत की विदेश नीति के समक्ष चुनौतियाँ
- पाकिस्तान के साथ सम्बन्धों को कैसे प्रबन्धित किया जाए ?
- चीन की नीतियों के प्रति भारत कैसे अनुक्रिया क्या हो ?
- आने वाले वर्षों में संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ भारत के सम्बन्धों की स्थिति कैसी होगी?
- अमेरिका के साथ भारत की बढ़ती नजदीकियों के अलोक में रुसी मित्रता को कैसे बरक़रार रखा जाए।
- अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं यथा संयुक्त राष्ट्र संघ, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संगठन, विश्व बैंक और विश्व व्यापर संगठन की सरंचना में बदलाव में भारत की भूमिका कैसे कारगर हो ?
- आतंकवाद के खतरे के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन जैसी उभरती हुई चुनौतियों से निपटने में भारत की भूमिका क्या हो ?
