छोटे राज्यों के पक्ष-विपक्ष में तर्क, क्या बड़े राज्यों का विभाजन उचित है?
छोटे राज्यों के पक्ष-विपक्ष में तर्क, क्या बड़े राज्यों का विभाजन उचित है?
क्या छोटे राज्य बड़े राज्यों से बेहतर हैं? यह कभी न खत्म होने वाली बहस है। सत्ताधारी सरकार राज्य के गठन पर क्या निर्णय लेती है? राज्यों के विलय या विभाजन के कुछ फायदे और नुकसान क्या हैं? इस मामले में कौन से कारक योगदान करते हैं? इस बारे में सोचने से पहले हमें थोड़ा पीछे जाना चाहिए और भारतीय राज्यों के इतिहास, राजनीति और उनके गठन के बारे में जानना चाहिए।
आजादी के तुरंत बाद की स्थिति
1947 में जब अंग्रेजों ने भारत को स्वतंत्र घोषित किया, तो इसने लगभग 562 रियासतें शामिल थी। इन राज्यों का प्रबंधन, उन्हें भारतीय उपमहाद्वीप में मिलाना और उन्हें फिर से संगठित करना कांग्रेस सरकार के लिए स्वतंत्रता के बाद एक जटिल मुद्दा बन गया।
राज्यों द्वारा भारतीय संविधान के प्रति निष्ठा दिखाने के बाद, जवाहरलाल नेहरू ने एक राज्य पुनर्गठन समिति का गठन किया, जिसने 1955 में भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया। भाषाई आधारपर 14 राज्यों का निर्माण किया गया, इसके अतिरिक्त 6 संघ राज्य क्षेत्र का भी निर्माण किया गया। संघ राज्य ऐसे राज्य क्षेत्र थे जिनकी सांस्कृतिक स्थिति आसपास के क्षेत्रों से भिन्न थी लेकिन संसाधनों के अभाव के कारण स्वतंत्र विकास करने में सक्षम नहीं थे। अतः आर्थिक, सांस्कृतिक आधार पर इनके प्रशासन एवं विकास का दायित्व केन्द्र को सौंपा गया। 14 राज्यों के पुनर्गठन के बाद कई अन्य राज्यों का निर्माण भी भाषाई एवं सांस्कृतिक आधार पर किया गया । दुर्भाग्य से, उनकी यह धारणा गलत थी कि एक ही भाषा बोलने वाले लोग शांति से एक साथ रहते हैं।
नये राज्यों के निर्माण का आधार
उपरोक्त राज्यों के निर्माण का आधार मुख्यतः सांस्कृतिक, आर्थिक एवं प्रशासनिक था। इन राज्यों के निर्माण के बाद भी नवीन राज्यों की मांग उठती रही जिसका आधार आर्थिक पिछड़ेपन, भौगोलिक स्थिति तथा सांस्कृतिक भिन्नता थी। इनमें उत्तराखण्ड (उत्तरांचल), छत्तीसगढ़ एवं झारखण्ड राज्य से संबंधित आंदोलन व्यापक एवं प्रभावी रूप से चलाए जा रहे थे।
ऐसे में सन् 2000 ई. में इन तीनों राज्यों का निर्माण किया गया। इसके पश्चात् तेलंगाना और 2019 में जम्मू-कश्मीर का विभाजन जम्मू-कश्मीर और लद्दाख नमक दो केंद्र-शासित प्रदेशों में किया गया।
छोटे राज्यों के पक्ष में तर्क
निर्णय लेने की स्वायत्तता
सबसे पहले, छोटे राज्यों का मतलब है कि महत्वपूर्ण फैसले जमीन तौर पर लिए जाएंगे। जैसे दिल्ली को छत्तीसगढ़ के लिए खाद्य सुरक्षा पर निर्णय नहीं लेना चाहिए, मुंबई को यह तय नहीं करना चाहिए कि विदर्भ के लिए क्या अच्छा है, जहां किसान आत्महत्या एक आम बात है।
अधिक लक्षित शासन
राज्यों के विभाजन का अर्थ है कि प्रत्येक राज्य के अपने नेता होंगे। व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो इसका मतलब यह हुआ कि जिस सरकार को 5 करोड़ लोगों के लिए नीतियां बनानी थीं, उसे अब सिर्फ 2 करोड़ में ही करना होगा। सरल गणित से प्रशासन में दक्षता अधिक होगी और शासन पर प्रदर्शन का दबाव कम होगा। बेहतर प्रशासन विकास को गति देता है।
संक्षिप्त बिंदु यह है कि छोटे राज्य शासकों और शासितों को शारीरिक और भावनात्मक रूप से एक-दूसरे के करीब लाते हैं – और लोकतंत्र में यह बहुत अच्छी बात है।
विविधता में कमी
छोटे राज्यों के बेहतर होने का एक मुख्य कारण यह है कि छोटे राज्य विविधता को कम करते हैं और यह भी अच्छी बात है। उच्च विविधता राजनीतिक और प्रशासनिक को जटिल बनाती है। 1950 के दशक में भाषाई राज्यों के निर्माण का पूरा उद्देश्य यह था कि वे प्रशासनिक दक्षता में सुधार करेंगे। सोंचने वाली बात है कि कम से कम दो प्रमुख भाषाओं (मराठी और गुजराती), या मद्रास प्रेसीडेंसी (चार प्रमुख भाषाई समूहों – तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम) के साथ बॉम्बे प्रेसीडेंसी का प्रशासन करना कितना मुश्किल रहा होगा।
राजधानी शहर की निकटता
यह एक ज्ञात तथ्य है कि राजधानी शहर वह जगह है जहां राज्य के लोग अपनी शिकायतों को हवा देने के लिए जाते हैं क्योंकि सभी प्रमुख सरकारी कार्यालय, जैसे राज्य उच्च न्यायालय और राजनीतिक क्वार्टर वहीँ स्थित होते हैं। एक नए राज्य में अक्सर एक राजधानी शहर अपेक्षाकृत नजदीक होता है जो कई मायने में लोगों को राहत प्रदान करता है। बड़े राज्यों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता।
उदाहरण के लिए : यदि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसी नागरिक को किसी राज्य आयोग या अदालत में जाना हो तो उसे न्याय पाने के प्रयास में बड़ी मात्रा में धन खर्च करते हुए, लखनऊ से 600 किमी से अधिक की यात्रा करनी पड़ती है। इस प्रकार, राज्य की राजधानी और परिधीय क्षेत्रों के बीच कम दूरी शासन की गुणवत्ता और प्रशासनिक जवाबदेही को बेहतर ढंग से सुनिश्चित करती है।
केंद्रीय कोष का उचित उपयोग
एक बड़े राज्य में समस्या यह है कि केंद्र द्वारा धन का आवंटन कभी भी समान रूप से वितरित नहीं किया जा सकता है। कुछ हिस्से को इस सन्दर्भ में हानि उठानी पड़ती है और इस प्रकार वे पिछड़े रह जाते हैं, जबकि वह हिस्सा जो अधिकतम राजनीतिक गतिविधि का केंद्र होता है , इसका लाभ उठता है। राज्यों को विभाजित करना निश्चित रूप से इस समस्या का समाधान करता है।
वृद्धि दर में तेजी
योजना आयोग के आंकड़ों के अनुसार, छत्तीसगढ़ के लिए सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) 1994-95 और 2001-02 में 3.1% की औसत वृद्धि से बढ़कर 2004-05 से 8.6% औसत हो गया। यहां तक कि उत्तराखंड भी इसी तरह की प्रवृत्ति दिखाता है (4.6% से 12.3%) । साथ ही, छत्तीसगढ़ में औद्योगिक क्षेत्र में इस 5 साल की अवधि में 13% की वृद्धि हुई, जबकि मध्य प्रदेश के लिए विकास दर केवल 6.7% थी। कहने का अभिप्राय यह है की एक कुशल और अधिक लक्षित प्रशासन के साथ, विकास अपरिहार्य है।
बेहतर जीवन स्तर
उत्तर प्रदेश में लोगों की प्रति व्यक्ति आय 2000-2001 में 9721 रुपये से बढ़कर 2010-11 में 17349 रुपये हो गई। उत्तराखंड के लिए वही 14932 रुपये बढ़कर 44723 रुपये हो गया, जो अपनी मातृ राज्य की तुलना में काफी बेहतर है। 2004 -2009 में, उत्तराखंड और झारखंड ने गरीबी को कम करने में अपनी मातृ राज्यों की तुलना में क्रमशः 14. 7 % और 6. 2 % की दर से बेहतर काम किया है, जबकि उत्तर प्रदेश और बिहार क्रमशः 0. 9 % और 3 .2 % के आंकड़ों का प्रबंधन कर सके।
विपक्ष में तर्क
विभाजन बनाम शासन
एक राज्य के आकार से कहीं अधिक वहां के शासन और प्रशासन की गुणवत्ता, राज्य की आबादी के भीतर उपलब्ध विविध प्रतिभा और नेतृत्व की क्षमता और दृष्टि है यह निर्धारित करती है कि कोई विशेष राज्य दूसरों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करता है या नहीं। जमीनी स्तर पर शक्तियों का हस्तांतरण और एक जवाबदेह नौकरशाही वह है जो एक अच्छा शासन सुनिश्चित करे न कि विभाजन । अगर ऐसा होता तो झारखंड एक विकसित राज्य होता। लेकिन यह सच से बहुत दूर है। खनन लाइसेंस और नक्सलियों का हमला राज्य को सता रहा है। नक्सल हमलों का 68 प्रतिशत सिर्फ छत्तीसगढ़ और झारखंड राज्यों में ही होते हैं।
छोटे राज्य विकास की गारंटी नहीं
चूंकि भारत मुख्य रूप से कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था है, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि विभाजन के तुरंत बाद छोटे राज्यों को लाभ होगा। अधिकांश राज्य बड़े पैमाने पर कृषि पर निर्भर हैं और इसलिए उनका भाग्य मानसून द्वारा तय किया जाता है।
विवाद के नए मुद्दे
एक बड़ी समस्या यह भी है कि राज्यों का विभाजन और पुनर्गठन अनेक विवादों और आपसी संघर्ष को भी जन्म देता है। महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच बेलगांव को लेकर आज तक खींचतान चल रही है। न जाने इसको लेकर कितने आंदोलन हो चुके हैं और कितने लोगों ने अपनी जान गंवाई है।
कई बार नदी जल वितरण और संसाधन वितरण और प्रबंधन के मामले में अन्य नए मुद्दे सामने आ सकते हैं और दोनों राज्यों के बीच विवाद का एक प्रमुख कारण बन सकते हैं।
अत्यधिक निर्भरता
एक छोटे राज्य को उसके लिए उपलब्ध प्राकृतिक और मानव संसाधनों के मामले में सीमाओं का सामना करना पड़ सकता है। इसके अलावा, इसमें आर्थिक और विकासात्मक गतिविधियों के लिए आवश्यक कृषि-जलवायु विविधता का अभाव हो सकता है । ये सभी कारक इसे केवल वित्तीय हस्तांतरण और केंद्र प्रायोजित योजनाओं के लिए केंद्र पर अधिक निर्भर बनाते हैं।
बुनियादी ढांचे की लागत
एक नए छोटे राज्य में बुनियादी ढांचे (प्रशासनिक और औद्योगिक) की कमी हो सकती है, जिसके निर्माण में समय, धन और प्रयास की आवश्यकता होती है। नई राजधानी के निर्माण और नए राज्यों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए भारी मात्रा में बुनियादी ढांचे की जरूरत होती है। इतने बड़े बुनियादी ढांचे की स्थापना के लिए आवश्यक पूंजी जुटाना एक कठिन कार्य है, जो केंद्र सरकार के राजकोषीय भंडार पर अधिक दबाव डाल सकता है । जबकि वर्तमान राज्य के भीतर विकास के लिए एक व्यवस्थित और नियोजित दृष्टिकोण विभाजन से बेहतर विकास के मुद्दे को संभाल सकता है।
एकता में बाधक
यदि राज्यों को धर्म, जाति, पंथ, भाषा, संस्कृति आदि के आधार पर विभाजित किया जाता है, तो सरदार वल्लभभाई पटेल द्वारा निर्धारित “एक भारत” बनाने का पूरा विचार ही व्यर्थ कहलाता । भारत पंथों और रीति-रिवाजों, संस्कृतियों, धर्मों, भाषाओं, नस्लीय प्रकारों और सामाजिक व्यवस्थाओं का एक संग्रहालय है। इस तरह के नाजुक कारकों पर भारत को विभाजित करने से केवल अराजकता ही पैदा हो सकती है। हम ब्रिटिश काल की “फूट डालो और राज करो” नीति का पालन करने के लिए वापस नहीं जा सकते।
छोटे राज्य के निर्माण का आधार क्या हो
अगर विभाजन ही एकमात्र विकल्प दिखे तो राज्यों का विभाजन सम्बन्धी निर्णय भूमि की गुणवत्ता और स्थलाकृति, कृषि-जलवायु परिस्थितियों, सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों, प्राकृतिक और मानव संसाधन उपलब्धता, जनसंख्या घनत्व, संचार के साधन, मौजूदा प्रशासनिक संस्कृति और इसकी प्रभावशीलता जैसी भौतिक विशेषताओं के गहन मूल्यांकन के पश्चात ही लिया जाना चाहिए।
छोटे राज्यों का आकर कैसे तय हो ?
अब प्रश्न यह भी है कि राज्यों का आकार यदि छोटा होना चाहिए, तो ये कैसे तय होगा कि आकार कितना हो? साथ ही, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि छोटे राज्यों का गठन होते ही विकास भी हो जाएगा और सारी समस्याएँ समाप्त हो जाएंगी।
हमारे देश में मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम जैसे कई छोटे-छोटे राज्य हैं, लेकिन वहाँ की जनता विकास से कितनी दूर है, ये बात किसी से छिपी नहीं है।
दूसरी ओर गुजरात जैसा बड़ा राज्य लगातार हर क्षेत्र में प्रगति के नए आयाम छू रहा है।
बिहार का विभाजन करके झारखंड का गठन किया गया, लेकिन बिहार तो अब प्रगति के पथ पर बढ़ रहा है और झारखंड में हर समय राजनैतिक अस्थिरता का भय बना रहता है।
हालांकि मप्र को विभाजित कर बनाए गए छत्तीसगढ़ राज्य में पिछले कुछ वर्षों में लक्षणीय प्रगति हुई है, लेकिन उसका भी अधिकांश श्रेय वहाँ की सरकार के काम-काज और मुख्यमंत्री की कार्यशैली को ही दिया जाता है।
इन उदाहरणों को देखकर ऐसा लगता है कि राज्यों के आकार के बजाए राजनेताओं और सरकार की प्रशासन-क्षमता और कार्यकुशलता का स्तर ही विकास होने या न होने का आधार है।
छोटे राज्यों का निर्माण कहाँ तक लाभकारी —केस स्टडी
वर्तमान में 28 राज्य और 8 केन्द्रशासित प्रदेश विद्यमान हैं। इन राज्यों के पुनर्गठन व निर्माण के साथ यह उम्मीद की जा रही थी कि पूर्व के कई छोटे राज्यों के समान इन राज्यों की भी विकास की प्रक्रिया अत्यंत तीव्र होगी लेकिन ऐसा नहीं हो पाया।
उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ राज्य में विकास की प्रक्रिया अपेक्षाकृत तीव्र हुई। लेकिन गठन के लगभग 10 वर्षों के बाद भी यह भारत के पिछड़े राज्यों में ही सम्मिलित है।
झारखण्ड एक ऐसे राज्य का उदाहरण है जहां पर्याप्त प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध हैं लेकिन विकास की प्रक्रिया अत्यन्त धीमी है जबकि यह उम्मीद की जा रही थी कि बिहार से अलग होने के बाद खनिज, वन, जल संसाधन के उपयोग द्वारा तीव्र आर्थिक विकास कर सकेगा लेकिन ऐसा नहीं हो सका। इसकी तुलना में उत्तरांचल एवं छत्तीसगढ़ में विकास की प्रक्रिया तीव्र है।
इन तीनों राज्यों की स्थापना एवं विकास की प्रक्रिया देखने पर यह स्पष्ट होता है कि केवल छोटे राज्यों की स्थापना विकास का मुख्य आधार नही हो सकता। आवश्यकता उपलब्ध संसाधनों के उचित नियोजन एवं विकास की प्रक्रिया को सही तरीके से लागू करने की है।
झारखण्ड जैसे राज्य की अस्थिर राजनीतिक व्यवस्था, अस्थिर सरकार, विधि व्यवस्था की विफलता, उग्रवादी समस्याओं का समाधान न होना एवं राजनीतिक, प्रशासनिक भ्रष्टाचार विकास में बाधक बना हुआ है।
तुलनात्मक रूप से उत्तरांचल में राजनीतिक स्थिरता एवं अनुकूल माहौल के कारण विदेशी निवेश के साथ ही पर्यटन उद्योग में वृद्धि विकास को सही दिशा में ले जा रही है।
छत्तीसगढ़ में भी उग्रवाद की समस्या विकास में प्रमुख बाधक है। संसाधनों की प्रचुरता के बावजूद छत्तीसगढ़ एवं झारखण्ड जैसे राज्यों में विदेशी निवेश का स्तर नगण्य है। अब आवश्यकता न केवल राज्यों की विधि व्यवस्था में सुधार की है, बल्कि स्थिर एवं सुरक्षित राजनीतिक प्रशासनिक माहौल बनाए जाने की है ताकि विदेशी पूंजी प्रवाह, तकनीकी निवेश के स्तर में सुधार हो।
बड़े राज्यों के विभाजन की मांग अभी भी जारी
वर्तमान में भी कई राज्यों की मांग आर्थिक पिछड़ेपन एवं भौगोलिक सांस्कृतिक आधारों पर की जा रही है जैसे विदर्भ, बुंदेलखण्ड, गोरखालैण्ड , हरित प्रदेश , मिथलांचल जैसे राज्य की मांग के आंदोलन हो रहे हैं। इन राज्यों की मांग को केन्द्र सरकार अत्यंत गंभीरता से ले रही है। और इस संदर्भ में नवीन राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना की बात हो रही है।
उत्तर प्रदेश को भी विभाजित कर पूर्वांचल राज्य, बुंदेलखण्ड राज्य तथा हरित प्रदेश राज्य में विभाजित करने की राजनीतिक मांग सामने आयी है।
बिहार में मिथिलांचल की मांग भी सांस्कृतिक-भाषायी आधार पर उठायी जाती रही है।
बुंदेलखण्ड जैसे क्षेत्र राज्य के अन्य क्षेत्रों की तुलना में पिछड़ी अवस्था में हैं। आधारभूत संरचना का अभाव, गरीबी, बेरोजगारी एवं पिछड़ा हुआ सामाजिक सूचकांक इन क्षेत्रों को नवीन राज्य के गठन के लिए आधार उपलब्ध कराते हैं।
आगे की राह
वर्तमान में भारत संघ की आवश्यकता नवीन राज्यों के निर्माण प्रक्रिया में शामिल होना नहीं है बल्कि राष्ट्र का समग्र एवं संतुलित विकास है। अतः पिछड़े प्रदेशों में आर्थिक विकास को त्वरित करना और इसके लिए पूंजी निवेश और बेहतर नियोजन प्रक्रिया अपनाया जाना आवश्यक है।
सर्वप्रथम यह प्रयास होना चाहिए कि क्या वर्तमान राज्य के अन्तर्गत रह कर ही विकास किया जाना संभव है या नहीं? और यदि संभव है तो किस प्रकार की नियोजन प्रक्रिया अपनायी जाए अर्थात् विकास का मॉडल तय किया जाना चाहिए। विकास का मॉडल क्षेत्र की समग्र विकास प्रक्रिया पर आधारित होना चाहिए और इसके लिए तंत्र उपागम का प्रयोग किया जाए। यदि विकास की संभावना है तो नवीन राज्यों का पुनर्गठन व निर्माण आवश्यक नहीं माना जा सकता लेकिन यदि विकास का अनिवार्य शर्त नवीन राज्य की मान्यता प्रदान करना ही है तो राज्य के गठन की संभावना पर विचार किया जाना अपेक्षित है।
यहां यह बात स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि राज्यों की मांग विकास आधारित है तो विकास की संभावना पर विचार किया जाना आवश्यक है और छोटे राज्य का गठन ही अनिवार्य शर्त प्रतीत होता है तो यह कदम उचित होगा।
लेकिन विशुद्ध राजनीतिक कारणों से राजनीतिक दबाव द्वारा राज्य के गठन की मांग की जा रही है तो ऐसी मांगों को खारिज कर दिया जाना चाहिए। पुनः केन्द्र सरकार नवीन राज्यों की संभावना को राज्य पुनर्गठन समिति या आयोग का गठन कर भी परीक्षण कर सकती है।
अतः वर्तमान स्थिति में यह तय करना अत्यन्त आवश्यक है कि किन राज्यों के निर्माण की आवश्यकता है और किन राज्यों की मांग अनावश्यक और राजनीतिक कारणों से उत्पन्न हो रही है। इस संदर्भ में एक स्पष्ट राष्ट्रीय नीति आवश्यक है ताकि राज्यों के निर्माण को लेकर होने वाली राजनीति की दिशा क्षेत्रीय हितो के साथ ही राष्ट्रीय हितों की अनिवार्यता पर आधारित हों। अन्ततः राष्ट्र हित ही सर्वोपरि है और इसके लिए वर्तमान संघीय ढांचे के अन्तर्गत संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप प्रांतों या राज्यों का पुनर्गठन व निर्माण किया जा सकता है लेकिन छोटे राज्यों की आवश्यकता एवं अनिवार्यता की युक्तियुक्तता का परीक्षण अत्यंत वैचारिक गंभीरता से किया जाना चाहिए।
Further Reference/Study:-

List of Indian States Formation Dates
Creation Dates | Created By | Remark/Old state | |
Andhra Pradesh | 01.11.1953 | States Reorganisation Act, 1956. | Part of Andhra State and Hyderabad State |
Arunachal Pradesh | 20.02.1987 | Created as a Union Territory by the North-Eastern Areas (Reorganisation) Act, 1971. Converted to a state by the State of Arunachal Pradesh Act, 1986 | Arunachal Pradesh Union Territory |
Assam | 1950 | Founded as Ahom Kingdom, reorganised as North-East Frontier Province in 1874, Eastern Bengal and Assam in 1905, Assam Province in 1912, achieved statehood in 1950. | Part of Kamarupa Kingdom |
Bihar | 1950 | Founded as Bihar and Orissa Province, reorganised as Bihar Province in 1936, achieved statehood in 1950. | Part of Bengal Province, British India |
Chhattisgarh | 01.01.2000 | The Madhya Pradesh Reorganisation Act, 2000 founded it. | Part of Madhya Pradesh |
Goa | 30.05.1987 | Founded by the State of Goa Act, 1986. | Part of Goa, Daman and Diu |
Gujarat | 1 May 1960 | Founded by the Bombay Reorganisation Act, 1960. | Part of Bombay State |
Haryana | 1.11.01966 | Founded by the Punjab Reorganisation Act, 1966. | Part of East Punjab |
Himachal Pradesh | 1971 | Founded by the Himachal Pradesh (Administration) Order, 1948 as Himachal Pradesh Province, reorganised as Himachal Pradesh (Part C State) in 1950, Himachal Pradesh Union Territory in 1956, achieved statehood in 1971. | Part of the princely states of former Punjab States Agency |
Jharkhand | 15.11.2000 | Founded by the Bihar Reorganisation Act, 2000 | Part of Bihar |
Karnataka | 1.11.1956 | Founded by the States Reorganisation Act, 1956 as Mysore State, renamed Karnataka in 1973 | Part of Bombay State, Coorg State, Hyderabad State and Mysore State |
Kerala | 01.11.1956 | Founded by the States Reorganisation Act, 1956 | Part of Madras State and Travancore-Cochin |
Madhya Pradesh | 01.11.1950 | Achieved statehood in 1950 | Part of the Central Provinces and Berar, Princely State of Makrai and the princely states of the former Eastern States Agency |
Maharashtra | 01.05.1960 | Founded by the Bombay Reorganization Act, 1960. | Part of Bombay State |
Manipur | 21.01.1972 | Founded by the North-Eastern Areas (Reorganisation) Act, 1971 | Manipur Union Territory |
Meghalaya | 21.01.1972 | Founded by the North-Eastern Areas (Reorganisation) Act, 1971 | Part of Assam |
Mizoram | 20.02.1987 | Created as a Union Territory by the North-Eastern Areas (Reorganisation) Act, 1971. Converted to a state by the State of Mizoram Act, 1986 | Mizoram Union Territory |
Nagaland | 01.12.1963 | Founded by the State of Nagaland Act, 1962 | Nagaland Union Territory |
Odisha | 1950 | Founded as Orissa Province in 1936, achieved statehood in 1950, renamed Odisha on 1st November, 2011. | Part of Bihar and Orissa Province, British India |
Punjab | 1947 | Founded by the Punjab Reorganisation Act, 1966 | Part of East Punjab |
Rajasthan | 30.03.1949 | Rajasthan, earlier known as Rajputana, came into existence | Part of the princely states of former Rajputana Agency |
Sikkim | 16.05.1975 | Founded by the Thirty-sixth Amendment of the Constitution of India in 1975 | Kingdom of Sikkim |
Tamil Nadu | 1.11.1956 | Founded by the States Reorganisation Act, 1956 as Madras State, renamed Tamil Nadu in 1969 | Part of Madras State and Travancore-Cochin |
Telangana | 2.06.2014 | Founded by the Andhra Pradesh Reorganisation Act, 2014 | Part of Andhra Pradesh |
Tripura | 21.01.1972 | Founded by the North-Eastern Areas (Reorganisation) Act, 1971 | Tripura Union Territory |
Uttar Pradesh | 24.01.1950 | Created as the United Provinces of Agra and Oudh during British rule in 1937 and Achieved statehood as UP in 1950. | United Provinces |
Uttarakhand | 9.11.2000 | Founded by the Uttar Pradesh Reorganisation Act, 2000 as Uttaranchal, renamed Uttarakhand in 2007. | Part of Uttar Pradesh |
West Bengal | 1950 | Achieved statehood in 1950 | Part of Bengal Province, British India |
- Goa, Puducherry, Dadra & Nagar Haveli and Sikkim were not a part of India at the time of independence.
- Puducherry alongwith Karaikal, Mahe and Yanam, was transferred to India in 1954 by the French.
- Dadra & Nagar Haveli were liberated in 1954 from the Portuguese. Similarly, Goa was liberated from Portuguese occupation in 1961.
- Sikkim became a part of India in 1974.















